Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 92
________________ 121 सम्मइसुत्तं जह संबंधविसिट्ठो सो पुरिसो पुरिसभावणिरइसओ। तह दवमिदियगयं रूवाइविसेसणं लहइ ॥18॥ यथा सम्बन्धविशिष्टः स पुरुषः पुरुषभावनिरतिशयः। तथा द्रव्यमिन्द्रियगतं रूपादिविशेषणं लभते ॥18॥ शब्दार्थ-जह-जिस प्रकार; संबंधविसिट्ठो-सम्बन्ध विशिष्ट (सम्बन्ध विशेप के होने पर)। सो-यह परिसो-पुरुष; पुरिसभावणिरइसओ-पुरुष पर्याय (की) अधिकता (वाला है), तह-वैसे ही इंदियगयं-इन्द्रियगत (सम्बद्ध); दव्य-द्रव्य रुवाइविसेसणं-रूप (रस) आदि विशेषण (वाला); लहइ- टालो जाता है। अभेदवादी का विशेष कथन : भावार्थ सम्बन्धों की अपेक्षा एक ही व्यक्ति में एकत्व होने पर भी वह पिता, पुत्र, भाई आदि भिन्न-भिन्न मान लिया जाता है। यही कारण है कि लोक में पिता, पुत्र आदि रूपों में व्यवहार होता है। इसे माने बिना व्यवहार नहीं बन सकता है। इसी प्रकार एक ही द्रव्य भिन्न-भिन्न इन्द्रियों के सम्बन्ध से रूप, रस आदि विशेषण वाला होता है। इसीलिए रूप, रस आदि रूपों में उसका व्यवहार किया जाता है। परन्तु वस्तुतः सामान्य रूप से वह एक है। इस प्रकार अभेद पक्षवादी सामान्य को स्वीकार करता है। उसके अनुसार एक द्रव्य ही वास्तविक तत्व है; पर्याय तो औपाधिक है। होज्जाहि दुगुणमहरं अणंतगुणकालयं तुजं दव्यं । ण उ' डहरओ महल्लो वा होइ संबंधओ पुरिसो ॥19॥ भवेद् द्विगुणमधुरमनन्तगुणकालकं तु यद्रव्यम्। न त्वत्पको महान् वा भवति सम्बन्धितः पुरुषः ॥1911 शब्दार्थ-जं-जो (कोई); तु-तो; दव्यं-द्रव्य; दुगुणमहुर-दुगुना मधुर (हो); अणंतगुणकालय अनन्त गुना काल का; होज्जाहि-होये (लथा); पुरिसो-पुरुषः इहरओ-छोटा; महल्लो-बड़ा; वा--अथवा (हो, तो); संबंधओ-सम्बन्ध से (इन्द्रियादिक के सम्बन्ध से); ण उ-नहीं; होइ-होता है (किन्तु विशेष धर्म से होता है)। सर्वथा अभेद-पक्ष निर्दोष नहीं : भावार्थ-अभेदवादी केवल एक सामान्य तत्त्व को ही मानते हैं। विशेष को तो वे I. ब" च।

Loading...

Page Navigation
1 ... 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131