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सम्म सुतं
एक दृष्टि है। किन्तु कोई जीव पृथ्वी रूप में, कोई जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पति के रूप में एवं कोई जीव त्रस शरीर के रूप में पाये जाते हैं। इसलिए जीव छह काय के होते हैं - यह भी एक दृष्टि है। किसी अपेक्षा से इन सब में एकत्य है और किसी अपेक्षा से भिन्नता है। चैतन्य सामान्य की अपेक्षा सब एक हैं, किन्तु गति तथा शरीर की अपेक्षा विभिन्नता है। अतएव दोनों में से किसी एक दृष्टि का निषेध न कर अनेकान्त सापेक्षरूप से प्रतिपादन करता है।
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गइपरिणयं गई चेव केइ नियमेव दवियमिच्छति । तं पि य उड्ढगईयं तहा गई अण्णहा अगई 429|| गतिपरिणतं गतिं चैव केचन नियमेन द्रव्यमिच्छन्ति । लदपि चोर्ध्वगतिकं तथा गतिरन्यथाऽगतिः ॥29॥
शब्दार्थ - केइ - कोई (एकान्तावलम्बी); णियमेण - नियम से गइ-परिणयं-गति (क्रिया में) परिणत; दवियं-द्रव्य को गई (यात्रा), चेप- ही इच्छति मानते हैं; तं पि य - और वह भी उड़ढगईयं-ऊर्ध्व गति बाला ( है ) ; तहा- तथा (तो), गई - गति ( वाला है); अण्णा - अन्यथा अगई - अगति (वाला) है।
कोई एकान्तावलम्बी :
भावार्थ- कोई ऐसा मानते हैं कि जो द्रव्य गति क्रिया में परिणत होता है, वही गति वाला है; जैसे- अग्नि लकड़ी, कागज, कपड़ा आदि वस्तुओं को जलाने रूप क्रिया करती है, तो उसे अग्नि कहते हैं । इसी प्रकार वस्त्रादि को उड़ाने के कारण तथा स्वयं बहने से पवन वायु कही जाती है। परन्तु अग्नि में न तो चैतन्य को और न किसी अमूर्तिक पदार्थ को जलाने की क्षमता है। इसलिए अग्नि किसी अपेक्षा से दाहक द्रव्य है और किसी अपेक्षा से दहन रूप द्रव्य नहीं भी है । परन्तु एकान्त मत वाला ऐसा मानता है कि जो द्रव्य ऊपर की ओर जाता है, वह गति वाला है; अन्य गति वाले नहीं हैं। इससे यह अभिप्राय प्रकट होता है कि शब्द (नाम) की व्युत्पत्ति से जो अर्थ निकलता हो, वह पदार्थ उसी रूप वाला है, अन्य कार्य नहीं करता है। अतएव अन्यथा कार्यशील होने से वह पदार्थ भी नहीं है। परन्तु प्रत्येक द्रव्य अनन्त गुण-धर्म वाला है।
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गुणणिव्वत्तिय सण्णा' एवं दहणादओ विदट्ठव्वा । जं तु जहा पडिसिद्धं दव्वमदब्वं तहा होइ ||30|
अ° गइपरिगयं ।
गुणनिवत्तिय सन्ना ।
वहणादओ।