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मपुतः
समुदयजणियम्मि समुदायजनिस में; दुधियप्पो-दो प्रकार (की है); समुदायविभागमैतसमुदाय विभागमात्र; च-और; अत्यंतरभावगमणं-अर्थान्तरभाव-प्राप्ति।
विनाश के दो प्रकार : मावार्थ-उत्पाद की भाँति विनाश भी दो प्रकार का है-प्रयोगिक विनाश और स्वाभाविक विनाश। दूसरे के प्रयत्न से जो विनाश होता है, उसे प्रायोगिक विनाश कहते हैं। जैसे कि-मुद्गर से घट का विनाश होना। अपने ही प्रयत्न से होने वाले विनाश को स्वाभाविक विनाश कहा जाता है; यथा-मेघों का स्वतः नाश होना। ये दोनों प्रकार के विनाश समुदायविभागमात्र और अर्थान्तरभाव-प्राप्ति के भेद से दो प्रकार के हैं। समुदायविभागमात्र का दृष्टान्त है-मुद्गर के आघात से बड़ेका फूट जाना, टुकड़े-टुकड़े हो जाना। किन्तु अर्थान्तरभाव-प्राप्ति में एक पर्याय का नाश होने पर किसी नवीन पर्याय ही प्राप्ति हो जाती है, जैसे कि स्वर्ण-निर्मित केयूर के विनाश से कुण्डल, हार आदि का तथा बीज से अंकुर पौघे आदि का उत्पन्न तथा विनाश होना। इसी प्रकार समुदायविभाग मात्र रूप वैनसिक (स्वाभाविक) विनाश का दृष्टान्त है : मेघ का बिना प्रयत्न किए बिखर जाना । इसी प्रकार अर्थान्तरभाव-प्राप्ति रूप वैससिक विनाश का दृष्टान्त है-नमक का पानी रूप होना या बर्फ का पिघल कर पानी बन जाना।
तिषिण वि उप्पायाई अभिषणकाला य भिण्णकाला य। अत्यंतरं अणत्यंतरं च दवियाहिं णायव्वा ॥35॥ त्रयोऽयुत्पादादयोऽभिन्नकालाश्च भिन्नकालाश्च । अर्थान्तरमनान्तरञ्च द्रव्याद् ज्ञातव्याः ॥3511
शब्दार्थ-तिपिण-तीनों वि-हि; उप्पावाई-उत्पाद आदि (उत्पाद, व्यय और धौव्य इन तीनों का) अभिण्णकाला-अभिन्न काल (एक समय); य-और; भिषणकाला य-भिन्न (भिन्न) समय भी (किसी अपेक्षा कहा गया है); दवियाहि-द्रव्यों से (अपने आश्रयभूत द्रव्यों से); अत्यंतर-अर्धान्तर (भिन्न पर्याय वाले हैं); च-और; अणत्यंतरं-अभिन्न पर्याय (वाले); णायव्या-समझना चाहिए।
उत्पाद, व्यय और धौव्य भिन्न तथा अभिन्न मी : भावार्थ उत्पाद, व्यय और धौव्य इन तीनों का किसी अपेक्षा एक काल कहा गया है, किसी अपेक्षा अनेक भी कहा गया है। एक काल' का अभिप्राय यह है कि ये भिन्न-भिन्न समय में नहीं होते। इनके उत्पन्न होने का जो समय है, वहीं व्यय होने का है और वही ध्रौव्य का समय है। और अनेक काल' का तात्पर्य यह है कि उत्पाद