Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 102
________________ सम्मइसुत्तं 131 साभाविओ वि' समुदयकओं व्व एगतिओं ब्व होजाहि । आगासाईआणं तिण्हं परपच्चओ अणियमा ॥33॥ स्वाभाविकोऽपि समुदयकृतोपि ऐकान्तिकोऽपि भवेत् । आकाशादीनां प्रयाणां परप्रत्यय. अनियम 133|| शब्दार्थ-साभाविओ-स्वाभाविक (उत्पाद); वि-भी; समुदयकओं व-समुदायकृत और एंगतिओ व्च-ऐकत्विक भी: होजाहि-होताह) आगासाईआणं-आकाशादिक, तिह-तीनों (धर्म, अधर्म और आकाश); परपच्चओ-परप्रत्यय (निमित्त होने से); अणियमा-अनियत (है)। स्वाभाविक उत्पाद मी: मावार्थ-स्वाभाविक उत्पाद भी दो प्रकार का है-समुदायकृत और ऐकत्विक। ऐकत्विक उत्पाद धर्म, अधर्म और आकाश इन तीनों में पर प्रत्यय निमित्तक होने से अनियत है। स्वाभाविक समुदायकृत उत्पाद किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा उत्पन्न नहीं होता है। किन्तु ऐकत्विक उत्पाद वैयक्तिक कहा जाता है। इसे परसापेक्ष इसलिए कहा गया है कि जब जीव और पुद्गल द्रव्य एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं, तव धर्म द्रव्य उदासीन कारण रूप से उनकी सहायता करता है। 'अणियमा पद से भी यह सूचित होता है कि ये स्वयं जीव और पुद्गल को नहीं चलाते हैं। किन्तु जिस प्रकार पथिक को ठहरने के लिए छाया उदासीन व अप्रेरक निमित्त है, वैसे ही यहाँ भी समझना चाहिए। व्यवहार सम्बन्धी सभी कथन निमित्त की अपेक्षा किए जाते हैं। किन्तु पर निमित्त कर्ता नहीं होता है। अतः पर निमित्त निमित्त मात्र होता है। परिणमन द्रव्य का स्वभाव होने से वह स्वशक्ति से ही आविर्भूत होता है। स्वतः शक्ति के बिना उसमें उत्पाद नहीं हो सकता। विगमस्स वि एस विहि समुदयजणियम्मि सो उ दुवियप्पो । समुदयविभागमत्तं अत्यंतरभावगमणं च ||3411 विगमस्याप्येष विधिः समुदयजनिते स तु द्विविकल्पः। समुदयविभागमात्रमथान्तरभावगमनञ्च ॥341| शब्दार्थ-विगमस्स--विनाश की; वि-भी; एस-यह; विधि-पद्धति (8); सो-वह 1. " प्रति में 'चि नहीं है। 2. अ एगत्तिओ।

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