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सम्मइसुतं
का काल भिन्न है, व्यय का काल भिन्न है और धौव्य का काल भिन्न है । यद्यपि सामान्य रूप से वस्तु प्रत्येक समय में पूर्व जैसी ही प्रतीत होती है; किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रथम समय से दूसरे समय की स्थिति भिन्न हैं और दूसरे समय से तृतीय, चतुर्थ आदि समय की स्थिति भिन्न-भिन्न है। यदि ऐसा न माना जाए जाए, तो वस्तु का कभी विनाश नहीं हो सकता। परन्तु प्रत्येक समय में द्रव्य में उत्पाद और विनाश हो रहा है। यदि ऐसा न माना जाए तो संसार और मोक्ष सिद्ध नहीं हो सकते। यह अनुभवसिद्ध है कि प्रत्येक जड़-चेतन द्रव्य की अवस्था दिन-किन में एलटीई है।
जो आउंचणकालो' सो चेव पसारियस्स वि ण' जुत्तो । तेसिं पुण पडिवत्तीविगमे कालंतरं णत्थि ॥36॥
य आकुञ्चनकालः स चैव प्रसारितस्यापि न युक्तः । तयोः पुनः प्रतिपत्तिविगमे कालान्तरं नास्ति 1|3611
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शब्दार्थ - जो-जो आउंछणकालो- संकोचन (का) समय ( है ) सो-चह चेव- ही; पसारियस्स - पसारने का ( फैलाव का समय); वि-भी (है); पण जुत्तो उपयुक्त नहीं (यह मान्यता युक्तियुक्त नहीं है); पुण-फिर (यह कहना कि ); तेर्सि उन दोनों के ( आकुंचन तथा प्रसारण के): परिवत्तीविगमे - उत्पत्ति (और) विनाश में; कालंतरं - समय (का) अन्तर गत्थि नहीं है।
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यह तर्क :
भावार्थ - जो यह कहा गया है कि वस्तु की उत्पत्ति, नाश एवं स्थिति का किसी अपेक्षा से एक समय है। इसी को ध्यान में रख कर कोई तर्क करता है कि अंगुली के संकुचित करने का जो समय है, वही उसके फैलाने का भी समय है - यह मान्यता युक्तियुक्त नहीं है।
दृष्टान्त के द्वारा समझाते हुए कहते हैं कि अंगुली पहले सीधी थी, वह अब टेढ़ी हो -गयी है। इसका अर्थ यह है कि सीधापन मिट कर टेढ़ापन आ गया है। इसमें सीधेपन का विनाश भिन्न है और टेढ़ेपन का उत्पाद भिन्न है। इस प्रकार इनमें यहाँ पर समय-भेद देखा जा सकता है। सिद्धान्त के प्रतिपादक आचार्य ने इस समय भेद की स्थापना की है।
1. ' आउंन अ" आकुंचण ।
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बनो (विण के स्थान पर) :
3.
ब" तेसुं पडियत्ती पि अ विगमे ।