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सम्मइसुतं उप्पज्जमाणकाल उप्पण्णं ति विगयं विगच्छंतं । दवियं पण्णवयंतो तिकालविसयं विसेसेइ 137|| उत्पद्यमानकालमुत्पन्नमिति विगतं बिगच्छन्तम् । द्रव्यं प्रज्ञापयन् त्रिकालविषयं विशेषयति ।।371
शब्दार्थ-उष्पज्जमाणकालं-उत्पन्न होते समय; उप्पण्ण-उत्पन्न (हआ है); विगच्छंतं-नष्ट होते (समय); विगयं-नष्ट हो गया; ति-यह (इस प्रकार); पण्णययंतो-प्ररूपणा करता हुआ; दवियं-द्रव्य को; तेकालांवसयंत्रकाल विषयक (त्रैकालिक); बिसेसेइ-विशेषित करता है। और : भावार्थ-द्रव्य के उत्पन्न होने के समय में ऐसा कहना कि यह उत्पन्न हो चुका है, यह नष्ट हो रहा है, यह नष्ट हो चुका है. इस प्रकार कनिक उत्पाद और व्यय को लेकर जो द्रव्य की प्ररूपणा करता है, वह द्रव्य को त्रिकालवी विशेषित करता
द्रव्य किसी पर्याय की अपेक्षा नष्ट होता है, किसी पर्याय की अपेक्षा उत्पन्न होता है और किसी अपेक्षा वह स्थिर भी रहना है। उत्पत्ति, नाश एवं स्थिति का यह सम्बन्ध वर्तमान काल से है। इसी प्रकार द्रव्य किती पर्याय की अपेक्षा नष्ट हुआ, उत्पन्न हुआ और स्थिर भी रहा-यह भूक्तकाल की अपेक्षा स है। इसी प्रकार भविष्यत् काल की अपेक्षा होने से द्रव्य उत्पन्न होगा, नष्ट होगा और स्थिर बना रहेगा। इस प्रकार ये तीनों कालत्रय की अपेक्षा से द्रव्य में घटित होते हैं। वस्तुतः कोई द्रव्य कभी भी उत्पन्न नहीं होता। वर्तमान अवस्था के पलटने के कारण उसे उत्पन्न हुआ कहा जाता है। किन्तु परिणमनशील अवस्थाओं में भी यस्तु ज्यों की त्यों मूल रूप में बनी रहती है। इससं यह सिद्ध है कि जो वस्तु वर्तमान में है, वह अपने स्वरूप में पहले भी थी और भविष्य में भी रहेगी। इस प्रकार वस्तु त्रैकालिक हैं।
दध्वंतरसंजोगाहिं' के वि दवियस्स बैंति' उप्पाय। उम्पावत्या अकुसला विभागजाय' ण इच्छति ॥38॥ द्रव्यान्तरसंयोगैः केऽपि द्रव्यस्य ब्रूवत उत्पादम्। उत्पादार्था अकुशला विभागजातं नेच्छन्ति ॥38||
1. व संजोआहिं। 2. कंधि 3. ट" उति 4. विभागजाई।