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सम्मइसुत्तं
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भजनाऽपि खलु भजनीया यथा भजना भजति सर्वद्रव्यान् । एवं भजना नियमोऽपि भवति समयाविरोधेन ॥27॥
शब्दार्थ-जह-जिस प्रकार: सबदव्याई-सब द्रव्यों को अनेकान्त): भयणा-विकल्प से; भयइ-भजता है; वि-मजना भी (अनेकान्त भी); हु-निश्चय से; भइयवा-विकल्पनीय (मजनीय है); एवं-इस प्रकार, समयाविरोहेण-सिद्धान्त (से) अविरुद्ध भयणा-विकल्पः णियमो वि-नियम से ही; होइ. होता है।
अनेकान्त की व्यापकता : भावार्थ-जिस प्रकार अनेकान्त सापेक्ष रूप से सभी द्रव्यों का प्रतिपादन करता है, उसी प्रकार अनेकान्त का भी प्रतिपादन अनेकान्त रूप होता है। अनेकान्त सम्यक अनेकान्त तब होता है जब उसमें किसी प्रकार से सिद्धान्त का विरोध न हो। किन्तु जब परस्पर निरपेक्ष होकर अनेक धर्मी का सम्पूर्ण रूप से प्रतिपादन किया जाता है, तय वह दृष्टि पिथ्या अनेकान्त रूप कही जाती है। और यही दृष्टि जब समग्र भाष से परस्पर सापेक्ष वस्तुगत अनेक धर्मो को ग्रहण करती है या उनका प्रतिपादन करती है, तब वह सम्यक् अनेकान्त कही जाती है। सिद्धान्त में वस्तुगत धर्मों के प्रतिपादन की यही रीति है कि मुख्य-गौण की विवक्षा से उनका कथन किया जाता है। यक्ता के अभिप्राय को ध्यान में रखकर अनेकान्त नय की दृष्टि से बस्तु का प्रतिपादन किया जाता है। अत: जिस समय एक दृष्टि प्रमुख होती है, उस समय अन्य दृष्टि अपने आप गौण हो जाती है। किन्तु उसका सर्वथा अभाव नहीं हो जाता।।
णियमेण सद्दहतो छक्काए भावओ' ण सद्दहइ । हंदी अपज्जवेसु वि सद्दहणा होइ अविमत्ता ॥28॥ नियमेन श्रद्दधानः षटकायान भावत न श्रद्दधाति। खलु अपर्यवेष्वपि श्रद्धानं भवत्यविभक्तम् ||28||
शब्दार्थ-णियमेण-नियम से; छक्काए-छह कायों (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति तथा उसकाय) को (की); सहहंतो श्रद्धा करने वाला (पुरुष); भावओ-भाव से (मूल वस्तु की दृष्टि से); ण-नहीं, सद्दहइ-श्रद्धान करता है, हंदी-निश्चय (से); अपज्जवेसु-अपर्यायों में (द्रव्यों में); वि-भी (ही); अविभत्ता-अखण्ड, सद्दहणा-श्रद्धान; होइ-होता है। इसी प्रकार : भावार्थ-इसी प्रकार संसार के सभी प्राणी समान रूप से चैतन्य शक्ति वाले हैं-यह
1. ब" नियमझो।