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सम्मइस्तं
औपाधिक तथा कल्पित कहते हैं। किन्तु अनेकान्तबादी का कथन है-जब रसना इन्द्रिय का सम्बन्ध दो मधुर रसों के साथ होता है, तब ऐसी प्रतीति होती है कि यह रस उस रस से दुगुना मीठा है। इसी प्रकार पहला वाला रस दूसरे रस की अपेक्षा दुगुना कम मधुर है। इस तरह की प्रतीति रसना इन्द्रिय से नहीं हो सकती। क्योंकि केवल रसना इन्द्रिय इस प्रकार की विषमता तथा विशिष्टता को जानने में समर्थ नहीं है। रस के साथ तो उसका साक्षात सम्बन्ध नहीं है। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए कि विशिष्टता, भिन्नता, विषमता आदि का ज्ञान विशेष धर्म से होता है; इन्द्रियादिक तथा काल के सम्बन्ध से नहीं।
भण्णइ संबंधवसा जह' संबंधितणं अणुमयं ते। णणु संबंधविसेसं संबंधिविसेसणं सिद्धं ॥20॥ भण्यते सम्बन्धवशादू यथा सम्बन्धित्वमनुमतं तव । ननु सम्बन्धविशेष सम्बन्धिविशेषणं सिद्धम् ॥20॥
शब्दार्थ-जह-जिस प्रकार; संबंधवसा-सम्बन्ध (के) बश से; ते-तुम्हें संबंधितणं-सम्बन्धीपन; अणुमयं-मान्य (है); णणु-निश्चय (से); (वैसे ही); संबंधविसेसं-सम्बन्ध विशेष (में, वस्तु में); संबंधियिसेसणं-सम्बन्ध-विशेषता (भी); सिद्ध-सिद्ध (हो जाती है)।
पुनः अभेदवादी का कथन : भावार्थ-पुनः अभेदवादी कहता है कि जिस प्रकार सामान्य सम्बन्ध के वश से वस्तु में सामान्य रूप से सम्वन्धत्व घटित होता है, वैसे ही सम्बन्ध विशेष में वस्तु में सम्बन्ध की विशिष्टता भी सिद्ध हो जाती है। विभिन्न सम्बन्धों के कारण वस्तु में सम्बन्धीपन भी पाया जाता है-ऐसा हम कह सकते हैं। सम्बन्ध के कारण ही व्यक्ति विशेष को सम्बन्धी कहा जाता है। सम्बन्धी में सम्बन्धपना अवश्य होता है। सम्बन्धी होने से ही व्यवहार चलता है। यदि कोई सम्बन्ध न हो तो सम्बन्धीपने का व्यवहार नहीं होता।
जुज्जइ संबंधवसा संबंधिविसेसणं ण उण' एयं । णयणाइविसेसगओ' रूवाइविसेसपरिणामो ॥21॥
1. बजइ। 2. ब तनुसंबंधविशेष। 3. ब" पुण। 1. ब' गयणाइविसे राओ।