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समाधान करते हुए कहते हैं-एक ही वस्तु में परस्पर विरुद्ध धर्म रूप विषम परिणाम पर-निमित्त की अपेक्षा से लक्षित होते हैं। इस कथन को एकान्त रूप से नहीं मान लेना चाहिए। क्योंकि इस प्रकार के परिणामों में स्वयं वस्तु अन्तरंग कारण है तथा अन्य बाह्य सामग्री बहिरंग कारण है। इस प्रकार सम परिणमन स्वनिमित्ताधीन है तथा विषम परिणमन कथंचित् परनिमित्ताधीन तथा कथंचित् स्यनिमित्ताधीन है।
दव्वस्स ठिई जम्मविगमा' य गुणलक्खणं ति वत्तवं'। एवं सइ केवलिणो जुज्जइ तं णो उ' दवियस्स ॥23॥ द्रव्यस्य स्थितिजन्मविगमौ च गुणलक्षणमिति वक्तव्यम् । एवं सति केवलिनो युज्यते तद् न तु द्रव्यस्य ||2||
शब्दार्थ-दव्वस्स-द्रव्य का (लक्षण); लिई-स्थिति (धौप्य) (द्रव्य का लक्षण धौव्य है); जम्मविगमा उत्पत्ति (और) विनाश: य-और: गुणलक्खणं-गुण (पर्याय का) लक्षण (है); ति-यह (ऐसा); वत्तचं-कहना चाहिए; एवं-इस प्रकार; सइ होने पर (मान लेने से) तं-वह (लक्षण); केवलिणो केवल; दथियस्स-द्रव्य का (तथा केवल गुण का); जुज्जइ-घटता है; उ-किन्तु; दवियस्स- द्रव्य का, अखण्ड वस्तु का; णो नहीं (घटता है। उत्पाद-व्यय-धौच्य लक्षण-विचार: भावार्थ-द्रव्य और पर्याय में भेद मानने वाले वादी का यह कथन है कि नित्यता या धोव्य द्रव्य का लक्षण है और उत्पत्ति एवं विनाश गुण अथवा पर्याय का लक्षण है। इस प्रकार से इन दोनों को विभक्त समझना चाहिए। इस विचार के विपक्ष में सिद्धान्तवादी यह कहता है कि इस तरह का विभाजन युक्तियुक्त नहीं है। क्योंकि
आचार्य उमास्वामी ने 'तत्त्वार्थसूत्र' में यह समझाया है कि द्रव्य का लक्षण 'सत्' है। 'सत्' उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त है। इनमें से द्रव्य के बिना पर्याय का कोई अस्तित्व नहीं है और पर्याय के बिना द्रव्य पृथक रूप से 'सत्' नहीं है। यदि द्रव्य को सर्वथा नित्य माना जाए, तो उसमें कूटस्थ नित्यता माननी होगी। अतः द्रव्य परिणामी नित्य सिद्ध नहीं होगा। इससे वस्तु क्रिया-शून्य होने से 'असत्' सिद्ध होगी। अतएव न तो पर्याय एकान्त रूप से अनित्य है और न द्रव्य ही नित्य है। परन्तु दोनों कथंचित् नित्यानित्यात्मक हैं। इसलिए एकान्त रूप से किसी (द्रव्य) को नित्य और किसी (पर्याय) को अनित्य मानना उचित नहीं है।
(पंचास्तिकाय, गा.10; प्रवचनसार, गा. 95-96) I. ब' जस्स वि गमा। 2. अ' गुणलालणं तु याव्य । . ब" । 1. व" लपणो