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सम्मइसुतं
(वाला); रूवाई-रूप आदि; परिणामी परिणाम; अत्यि है। तम्हा-इसलिए: गुणविसेसो-गण विशेष (रूपादि हैं, जिसे विषय करने वाला गुणार्थिक नय है-ऐसा कोई); भणई-कहता है (यह ); समये-आगम में; जपंति-कहा जाता है।
और फिरभावार्थ-गुणार्थिक नय स्वतन्त्र इसलिए नहीं माना गया है कि उसका अन्तर्भाव पर्यायार्थिक नय में हो जाता है। सिद्धान्त ग्रन्थों में रूप, रस, गन्ध आदि परिणाम एक गुण, दसगुण तथा अनन्त गुण वाले कहे गए हैं। अतएय रूप, रस, गन्ध आदि गुण विशेष हैं। इनको विषय करने वाला गुणार्थिक नय है-ऐसा कोई कहते हैं। परन्तु रूप, रस, गन्ध आदि विशेष हैं और जो विशेष हैं वह पर्याय रूप है। द्रव्य में भेद करने वाले धर्म को गुण कहते हैं। और द्रव्य का विकार पर्याय है। कहाँ भी है
गुण इदि दवविहाणं दचधिकारी हि पज्जनो भणिदो। तेहि अणूणं दवं अजुदपसिद्ध हवे णिच्चं ॥ -- सर्वार्थसिद्धि 5, 38
गुणसद्दमंतरेणावि तं तु पज्जवविसेससंखाणं । सिन्झइ णवरं संखाणसत्थधम्मो तइगुणो त्ति ॥4॥ गुणशब्दमन्तरेणापि तत्तु पर्यवविशेषसंख्यानम्।
सिद्ध्यति नवरं संख्यानशास्त्रधर्मस्तावद्गुण इति ॥141 शब्दार्थ-गुणसहमंतरेणावि-गुण शब्द (के) बिना भी; तं तु-वह तो (जो); पज्जयविसेससंखाणं-पर्याय (गत) विशेष संख्या को (कहने वाले); सिजइ-सिद्ध होते (है) णवरं-केवल (वह); तइगुणो-उतना गुण (है); त्ति-यह; संखाणसत्यधम्मो-गणित शास्त्र (का) धर्म (है)।
संख्या का निर्वचन गुणार्थिक नय से नहीं : भावार्थ-'गुण' शब्द के बिना भी जो रूप, रस, गन्ध आदि का बोध कराते हैं तथा एक गुने, दस गुने काल आदि वाले वचन हैं, वे पर्यायगत विशेष संख्या के कहने वाले सिद्ध होते हैं। उनसे गुणों की तथा गुणार्थिक नय की सिद्धि नहीं होती। फिर, यह गुण इतना है, वह गुण इतना है-यह बतलाना गणितशास्त्र का विषय है। गुणार्थिक नय इस प्रकार की संख्या नहीं बतला सकता है। यद्यपि सूत्रों में वर्णगुण, स्पर्शगुण आदि शब्दों में 'गुण' शब्द का प्रयोग न होकर वर्णपर्याय, स्पर्शपर्याय जैसे शब्दों में 'पर्याय' शब्द का प्रयोम मिलता है-इससे भी यह स्पष्ट होता है कि गुण पर्याय रूप है। फिर, एक गुण कृष्ण, दशगुण कृष्ण आदि शब्दों में जो 'गुण' शब्द प्रयुक्त देखा जाता है, वह वर्ण आदि पर्यायों के परस्पर तर-तममाव (परिमाण) को प्रकट करता है; न कि पर्याय से अपने को भिन्न प्रकट करता है।