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सम्मइसुत्तं
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भिन्नता निश्चित होती है। उनके अनुसार द्रव्य का लक्षण है: 'क्रियावत्गुणवत्समवायिकारणं द्रव्यम्" । (क्रियावान् तया गुणवान् समवायी कारण को द्रय्य कहते है) और 'द्रव्याश्रय्यगुणवान् संयोगविभागेष्यकारणमनपेक्ष'-यह गुण का लक्षण है। इन लक्षणों की भिन्नता से भी गुण-गुणी एवं द्रव्य में भिन्नता है। यहाँ से भेदैकान्तबादी मान्यता का निरूपण किया जाता है।
दूरे ता अण्णत्तं गुणसद्दे चेव ताव पारिच्छं। किं पज्जवाहिओ' होज्ज पन्जवे चेव गुणसण्णा ॥9॥ दूरे तावदन्यत्वं गुणशब्दे चैव तावत्परीक्ष्यम् ।
किं पर्यवाधिको भवतु पर्यवे चैव गुणसंज्ञा ||9॥ शब्दार्थ-दूर-दूर रहे; ता-तो, अण्णत्त-अन्यत्य (मिन्नपना); गुणसद्दे-गुण शब्द (के विषय) में; चेव-ही; ताव-तब तक पारिच्छं-विचार करना चाहिए। किं-क्या (गण); पसयास्तिो पर्याय (2; अधिक । या), को पर्याय में; चेव-ही; गुणसण्णा-गुणसंज्ञा; होज्ज-होवे।
गुण पर्याय-संन्ना है क्या ? : भावार्थ-द्रव्य और गुण का भेद तो दूर की बात है। यह जो आप कहते हैं कि 'गुण
और गुणी में सर्वथा भेद है। इसमें सर्वप्रथम 'गुण' शब्द के सम्बन्ध में ही विचार कर लेना चाहिए। यह गुण पर्याय से भिन्न है या पर्याय ही गुण है ? जिसे जन सामान्य 'गण' कहते हैं, वह पर्याय से भिन्न अर्थ में प्रयुक्त है या पर्याय के अर्थ में प्रयुक्त है ? यहाँ 'गुण' शब्द से अभिप्राय सहभावी पर्याय से है। आत्मा के ज्ञान, आनन्द आदिक गुण सहभायी होने से उनको सहभावी कहा जाता है। अतः 'गुण' शब्द सहभावी पर्याय का ग्राहक है। गुण सहभावी विशेष है। कहा भी है-"सहभाबिनो गुणः क्रमभाविनः पर्यायः ।" तथा--
गुणवद्रव्यमित्युक्त सहानेकान्तसिद्धये। तथा पर्यायवद्रव्यं क्रमानेकान्तबित्तये ॥१॥-तत्त्वार्यश्लोकवार्तिक, 5.५९, 2 दो उण' णया भगवया दव्यट्ठियपज्जवट्ठिया णियया। एत्तो य गुणविसेसे' गुणट्ठियणयो वि जुजतो ॥10॥
1. घ" चेव पाव पारिच्छं। द" वेब ताव पारिन्छ । १. ब पज्जवाहि (1) ओ। 3. "पुण। 4. व गुणविसेसो।