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सम्मइसुत्तं
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'असदशपर्याय' शब्द से तात्पर्य पर-पर्याय' से है। परन्तु जिन पर्यायों में 'यह बह हैं ऐसी प्रतीति होती है अथवा मूल द्रव्य का अन्वय जिनमें रहता है, उनका ग्रहण 'सदृश नांद' शब्द से किया जाता है । इस प्रकार स्व-पर्याः को लापेक्षा वस्तु है-यह प्रथम मंग (कथन-प्रकार) है तथा पर-पर्याय की अपेक्षा वस्तु नहीं है-यह द्वितीय भंग है। इस कथन का अभिप्राय यह है कि वस्तु स्वद्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्वभाव की अपेक्षा से है, किन्तु पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-समय और पर-भाव की अपेक्षा से नहीं है। स्वपर्याय दो प्रकार की हैं-व्यंजन पर्याय और अर्थ पर्याय । 'घड़ा है यह व्यंजनपर्याय की अपेक्षा कहा जाता है। सभी एक जैसे आकार के घड़े इस भंग में आ जाते हैं। किन्तु विशेष रूप से आकृति, रंग आदि का कथन अर्थ पर्याय की अपेक्षा से किया जाता है।
पच्चुप्पण्णम्मि वि पज्जयम्मि भयणागई पडइ दव्यं । जं एगगुणाईया अर्णतकप्पा गुणविसेसा' ॥6॥ प्रत्युत्पन्नेऽपि पर्याय भजनागति पतति (प्राप्नोति) द्रव्यम् ।
यदेकगुणादयोऽनन्तकल्पा गुणविशेषाः ॥6॥ शब्दार्थ-पच्चुप्पण्णम्मि-वर्तमान काल में वि-भी; पज्जयम्मि-पर्याय में दवं-द्रव्य भयणागइं-भजनागति (उभय-रूप-क्रयचित् सत् और कचित् असत्) को पडइ-पड़ता (है, धारण करता है); जं-जिस; एगगुणाईया-एक गुण को आदि लेकर, गुणविसेसा-(उस) गुण (के) विशेष; अणंतकप्पा-अनन्त प्रकार (होते हैं)। वर्तमान में भी वस्तु सत्-असत् : भावार्थ-मिट्टी की वर्तमान पर्याय घड़ा है। इसके घड़ा बनने के पहले और भी घड़े बन चुके होंगे। उन सभी की बनावट में और रंग आदि में विशेष रूप से कुछ भिन्नता अवश्य लक्षित होती है। इसी प्रकार वर्तमान काल में भी निर्मित यड़ों में गुण आदि की दृष्टि से उनमें परस्पर भिन्नता प्रकट होती है। इस भिन्नता का कथन अर्थपर्याय की अपेक्षा से किया जाता है। वस्तु के एक वर्ण (रंग) को लेकर उसके संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त गुण या भाग हीनाधिक रूप में होने के कारण प्रतिपादन किया जाता है। अतएव वर्तमान में जो पर्यायें विद्यमान हैं, वे कथंचित् सत् रूप को तथा कचित् असतू रूप को धारण करती हैं। इस प्रकार द्रव्य कथंचित् सत् तथा कचित् असत् उभयरूपता का स्पर्श करने वाला कहा गया है।
को उप्पायंतो पुरिसो जीवस्स कारओ होइ।
तत्तो विभइयव्बो' परम्मि सयमेव भइयव्वो ॥7॥ 1. अ' गुर्णायसेसा। 2. ततो विसए अव्यो। स" तत्तो विभएयची।