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सम्पइसुतं
दव्यं जह परिणयं तहेव अस्थि ति तम्मि समयम्मि । विगयमविस्सेहि उ पज्जवेहि भयणा विभयणा वा ॥4॥ द्रव्यं यथा परिणतं तथैवास्तीति तस्मिन्समये। विगतभविष्यद्भिस्तु पर्यायैजना विभजना वा ॥4||
शब्दार्थ-जह-जिस प्रकार; दर-द्रव्य; परिणयं- परिणत (हुआ); तम्मि-उसमें। समयम्मि-समय में तहेव-उसी प्रकार ही; अस्थि-है; त्ति-यह (इस प्रकार): विगयभविस्सेहि-अतीत (और) भविष्यत् (काल की); ७-तो; फज्जवेहि-पर्यायों से (के साथ) भयणा-अभेद; वा-और; विभयणा-भेद (भी) है।
सामान्य के दोनों भेदों का समन्वय : भावार्थ-जिस समय जो द्रव्य जिम पर्याय रूप परिणम गया है, वह द्रव्य उस समय उसी रूप में है। जो द्रव्य अपनी भूतकालिक, भविष्यतत्कालीन तथा वर्तमान की पर्यायों को अपने में समेटे रहता है, जिनके साथ उसका अभेद है और भेद भी है। इस प्रकार काल-क्रम से होने वाली पर्यायों में तथा भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में समन्वय करने वाला बचन युक्तियुक्त है, और यही प्रतीत्यवचन है।
परपज्जवेहिं असरिसगोहिं णियमेण णिच्चमवि णत्थि। सरिसेहिं पि वंजणओ पि अत्यि ण पुणत्थपज्जाए ॥5॥ परपर्यायैरसदृशगमैर्नियमेन नित्यमपि नास्ति। सदृशैरपि व्यंजनतोऽप्यस्ति न पुनरर्थपर्यायेन |5||
शग्दार्थ-असरिसगमेहि-असदृशों से; परपज्जवहि-पर पर्यायों (की अपेक्षा) से णियमेण-नियम से: णिच्चमवि-नित्य भी; पत्यि-नहीं है; सरिसेहि-सदृशों से; पि-भी; बंजणओ-व्यंजन (पर्यायों की अपेक्षा) से; अस्थि-है; ण-नहीं (है); पुण-फिर; अत्थपज्जाए-अर्थपर्याय (की अपेक्षा) से।
वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों : भावार्थ-जव 'वस्त है। यह कथन किया जाता है, तो इसका तात्पर्य है कि वह अपनी वर्तमान पर्याय की अपेक्षा से है, किन्तु पर पर्याय की अपेक्षा से नहीं है। यहाँ
1. स पन्जयहिं। 2. " मरिसहि वि बंजणों: 3. ब" अन्धी गं पुग र पज्जा"।