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सम्मसुत
कोपमुत्पादयन् पुरुषो जीवस्य कारको भवति ।
ततो विभाजयितव्यः परस्मिन् स्वयमेव भाजितव्यः ||7||
शब्दार्थ- कोवं क्रोध को; उप्पायंतो उत्पन्न करता हुआ, पुरिसो-पुरुषः जीवस्स- जीव का: कारओ-कारक होइ-होता (है); तत्तो-इससे (यह ); विभइयव्वो-भेद योग्य (है और ); पीपर (क) मे स्वयं ही (से) भइयन्वो अभेद योग्य ( है ) ।
एक ही पुरुष में भेदाभेद :
भावार्थ - वर्तमान अवस्था को उत्पन्न करने वाला पुरुष जीव का कारक हैं। अपने - आप में वह क्रोध को उत्पन्न करता है। इसलिए पहले के जीव से उसमें किसी अपेक्षा से भिन्नता है। वास्तव में जीव स्वयं पर्याय रूप परिणमन करता है। इसलिए संसारी जीव अपनी भविष्यत् काल की पर्याय का निर्माता स्वयं है। अतएव पूर्व पर्याय का जीव कारण है और उत्तरवर्ती पर्याय को प्राप्त जीव स्वयं कार्य है। वस्तुतः पूर्व पर्याय में रहने वाला जीव ही उत्तरवर्ती पर्याय वाला हुआ है। इस दृष्टि से इनमें कोई भेद नहीं है। इस प्रकार एक ही वस्तु में भेद-अभेद की सिद्धि कही गई है।
रूवरसगंधफासा असमाणग्गहणलक्खणा जम्हा । तम्हा दव्वाणुगया गुण त्ति ते केइ इच्छंति ॥8॥ रूपरसगन्धस्पर्शा असमानग्रहणलक्षणा यस्मात् । तस्माद् द्रव्यानुगता गुणा इति ते केचिदिच्छन्ति ॥४॥
शब्दार्थ - जम्हा - जिस कारण रूवरसगंधफासा-रूप, रस, गन्ध (और) स्पर्श (ये); असमाणग्गहण असमान ग्रहण (भिन्न प्रमाण से ग्रहण होते हैं) और लक्खणा - ( भिन्न) लक्षण (बाले हैं); तम्हा - इस कारण ते वे: दव्वाणुगया- द्रव्य (से) अनुगत (द्रव्य के आश्रित); गुण-गुण ( हैं ); त्ति-यह कई-कई ( प्रवादी जन); इच्छति मानते ( हैं ) ।
क्या द्रव्य और गुण में भेद है ? :
भावार्थ- कई वैशेषिक आदि प्रवादीजनों का यह कथन है कि गुण गुणी से और गुणी गुण से सर्वथा भिन्न है। आत्मा ज्ञानवान् (गुणी ) है - यह व्यवहार समवाय सम्बन्ध से होता है। लोक के पदार्थों का ज्ञान चक्षु इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष से स्पर्शन इन्द्रियजन्य होता है। जो वस्तु पहले देखी थी, उसको ही लेकर आ रहा हूँ-यह ज्ञान स्मरण के सहकारी प्रत्यभिज्ञान से होता है। इसलिए द्रव्य को ग्रहण करने वाला प्रमाण अन्य हैं और रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्श को ग्रहण करने वाला प्रमाण अन्य है। इस प्रकार द्रव्य और गुणों को ग्रहण करने वाला प्रमाण अन्य होने से द्रव्य में तथा गुणों में