Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 70
________________ सम्मसुतं मनः पर्यवज्ञानं दर्शनमिति तेनेह भवति न च युक्तम् । भण्यते ज्ञानं नोइन्द्रिये न घटादयो यस्मात् ॥26॥ 99 शब्दार्थ - तेणेह - इसलिए यहाँ (व्याख्या के अनुसार प्रसंगतः); मणपज्जवणाणं - मनः पर्ययज्ञान को दंसणं-दर्शन ( मानना पड़ेगा ): त्ति - यह होइ - होता ( है ) : ण- नहीं; य - और जुत्तं युक्त ( है ); भण्णइ कहा जाता ( है ) ) जम्हा-जिस से; जोइंदियम्म- नोइन्द्रिय (मन के विषय में गाणं-ज्ञान (प्रवर्तमान होता है); ण-नहीं; घडादओ - घट आदि ( विषय हैं)। 1 मन:पर्ययज्ञान में मन:पर्ययदर्शन का प्रसंग नहीं भावार्थ- 'दर्शन' शब्द की उक्त व्याख्या के अनुसार मन:पर्ययज्ञान को मनः पर्ययदर्शन रूप मानने का प्रसंग हो जाता है, किन्तु आगम में मनः पर्ययदर्शन नहीं माना गया है। इसका कारण यह है कि परकीय मनस्थित मनोवगणा रूप मन को मन:पर्ययज्ञान विषय करता है। अतः मन के साथ अस्पृष्ट जो घट आदि हैं, वे इसके विषय नहीं हैं; उनका विषय तो अनुमान है। इस प्रकार मनःपर्यय ज्ञान रूप ही होता है; दर्शन रूप नहीं । मइसुयणाणणिमित्तो छ मत्थे होइ अत्थउवलंभो । एगयरम्मि वि तेसिं ण दंसणं दंसणं कत्तो ॥27॥ मतिश्रुतज्ञाननिमित्तो छद्मस्थे भवति अर्थोपलम्भः । एकतरस्मिन्नपि तयोर्न दर्शनं दर्शनं कुतः ॥27॥ शब्दार्थ - छउमत्थे - छद्मस्थ (अल्प ज्ञान चाले जीवों) में मइसुयणाण - मतिज्ञान (और) श्रुतज्ञान (के); निमित्तो- निमित्त (से); अत्थउवलंभो - पदार्थ (का) ज्ञान: होइ - होता (है); तेसिं-उन दोनों (ज्ञानों में से) में एगयरम्मि - एक में (यदि ): ण-नहीं; दंसणं-दर्शन (ज्ञान के पहले वस्तु को देखना है); (तो फिर) दंसणं-दर्शनः कत्तो - कहाँ से ( हो सकता है) । अल्पज्ञ का पदार्थ - ज्ञान दर्शनपूर्वक भावार्थ - अल्पज्ञों को पदार्थ का ज्ञान मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के निमित्त से होता है । मतिज्ञान से होने वाला वस्तु का ज्ञान दर्शनपूर्वक होता है। किन्तु श्रुत (आगम) से होने वाला पदार्थ - ज्ञान दर्शनपूर्वक नहीं होता। अतः शास्त्र की इस मर्यादा को ध्यान में रखकर दर्शनोपयोग की स्वतन्त्र सिद्धि हेतु इस गाथा में कहा गया है कि यदि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन दोनों में से किसी एक के पहले दर्शन का होना न माना जाए, तो फिर दर्शन कब और कैसे हो सकता है ?

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