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यदि अवग्रहमानं दर्शनमिति मन्यसे विशेषितं ज्ञानम्।
मतिज्ञानमेव दर्शनमेवं सति भवति निष्पन्नम् ॥28॥ शब्दार्थ-जइ-यदि; ओग्गह-अवग्रह (आद्य ग्रहण); मेत्तं-मात्र, देसण-दर्शन (है); त्ति-यह (तथा); बिसेसियं-विशेष (बोध); णाणं-ज्ञान (है); मण्णसि-मानते हो (तो); एवं-इस प्रकार; सइ-होने पर; (यह मतिज्ञान), णिप्पण्णं-निष्पन्न (फलित: होड़-होता (है)। मतिन्जान ही दर्शन : भावार्थ-यदि अवग्रह मात्र दर्शन है और विशेष बोध ज्ञान है, जैसा कि आप मानते हैं, तो इस मान्यता में मतिज्ञान ही दर्शन है, ऐसा इससे फलित होता है। जो यह कहता है कि मतिज्ञाम के अवग्रह रूप अंश को दर्शन और ईहा अंश को ज्ञान कहते हैं, तो इस मान्यता से भी यही सिद्ध होता है कि मतिज्ञान ही दर्शन है। 'बृहद्रव्यसंग्रह' में स्पर्शनदर्शन, रसनादर्शन, प्राणजदर्शन आदि का उल्लेख मिलता है। (द्रष्टव्य है-गा. 4, पृ. 11) यथार्थ में सर्वज्ञ का विषय अचक्षुदर्शन-ग्राह्य है।
एवं सेसिदियदसणम्मि' णियमेण होइ ण य जुत्तं । अह तत्थ णाणत्तं घेपइ चक्खुम्मि वि तहेव।। 24 ।। एवं शेषेन्द्रियदर्शने नियमेन भवति न च युक्तम् ।
अथ तत्र झानमात्रं गृह्यते चक्षुष्यपि तथैव।। 24 ।। शब्दार्थ-एवं-इस प्रकार (होने पर); सेसिौदेवदंसणम्पि-शेष इन्द्रियों (के) दर्शन में (भी); णियमेण-नियम से (यही मानना पड़ेगा, किन्तु); होइ-होता (है); ण-नहीं: य-और, जुत्तं-युक्त; अह- और; तत्थ-वहाँ (उन इन्द्रिय विषयक पदार्थों में); णाणमेतं-ज्ञान मात्र; ऐप्पद-ग्रहण किया जाता है) (तो); चरखुम्मि-चक्षु (इन्द्रिय के विषय) में; वि-भी; तहेय-उसी प्रकार (से) ही (मान लेना चाहिए)। इन्द्रियों से ज्ञान होता है, दर्शन नहीं : भावार्थ-यदि आप यह मानते हैं कि चक्षं इन्द्रिय और मन को छोड़ कर शेष इन्द्रियजन्य अवग्रह ज्ञान रूप होता है और चक्षुर्जन्य अवग्रह दर्शन रूप होता है, तो यह कथन युक्तियुक्त नहीं है। क्योंकि अन्य इन्द्रियों से जिस प्रकार ज्ञान होता है; दर्शन नहीं; वैसे ही चक्षु इन्द्रिय के विषय में भी यह मान लेना चाहिए कि उससे भी अवग्रहादि रूप पदार्थों का ज्ञान होता है। इस प्रकार चक्षदर्शन की सिद्धि नहीं हो सकती।
1. बदसणेसु।