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सम्मइसुत्त
एवं जीवद्रव्यमनादिनिधनविशेषितं यस्मात्। राजसदृशस्तु केवलिपर्यायस्तस्य सविशेषः ॥4॥
शब्दार्थ-एवं-इस प्रकार अविसेसियं-सामान्यतः जीबद्दबं-जीव द्रव्य जम्हा--जिस लिए; अणाइणिहणं--अनादिनिधन (है और); रायसरिसो-राजा (के) समान; उ-तो; तत्स-उसकी; केवलिपज्जाओ-केवली (रूप) पर्याय: सविसेसो-विशेष (है)।
जीव द्रव्य धुव है: भावार्थ-इस प्रकार सामान्य रूप से जीय द्रव्य अनादिनिधन व नित्य ही है। राजा के समान रूसकी केवलज्ञान रूप पर्याय विशेष है। वह अपने मौलिक रूप की अपेक्षा नित्य ही है। प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूप से सदा काल नित्य, ध्रुव, शाश्वत है। गुणों का अभेद, अखण्ड पिण्ड कभी भी किसी गुण से रहित नहीं होता। जब कोई भी गुण कम नहीं होता, तो द्रव्य की अनित्यता का प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता। किन्तु प्रत्येक समय परिणमनशील द्रव्य में एक अवस्था में परिवर्तन होना और पलटकर नई अवस्था का उत्पन्न होना रूप जो उत्पाद-यय देखा जाता है, उस अपेक्षा से द्रव्य को अनित्य कह दिया जाता है।
जीवो अणाइणिहणो जीव त्ति य णियमओ ण वत्तव्यो। जं पुरिसाउयजीवो देवाउयजीवियविसिट्टो ।। 42 ।। जीवोऽनादिनिधनो जीव इति च नियमतो न वक्तव्यः। यः पुरुषायुष्कजीवो देवायुष्कजीवितविशिष्टः ॥42||
शब्दार्थ-जीवो-जीव; अणाइणिहणो-अनादिनिधन: जीव-जीव (ही है); ति-ऐसा; य-और: णियमओ-नियम से; प-नहीं; वत्तव्बो-कहना चाहिए; (क्योंकि), जं-जो; परिसाउय-मनुष्याय (वाले); जीवो-जीव (हैं और); देवाग्यजीविय-देवायु जीवों (में); विलिटूठो-विशिष्ट (भेद है, वह नहीं बन सकेगा)।
और भावार्थ-यदि सामान्य को विशष से रहित माना जाय, तो एक पर्याय से विशिष्ट जीव का और दूसरी पर्याव से विशिष्ट जीव का परस्पर में जो भेद-व्यवहार देखा जाता है, उसका लोप हो जाएगा। किन्तु मनुष्य पर्याय वाले जीव में और देव पर्याय वाले जीव में भेद देखा जाता है। अतएव प्रत्येक द्रव्य पर्याय से सर्वथा भिन्न नहीं है। यही कारण है कि पांच की अनित्यता से द्रव्य भी कर्यचित् अनित्य माना जाता है। इस