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सम्मइसुतं
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(सम्यग्दर्शन होता है); दसणे-दर्शन में (के होने पर); उ-तो; सम्मण्णाणं-सम्यग्नान; भयणिज्ज-भजनीय (हो या न हो); इमं यह; ति-इस (प्रकार); अत्यओ-अर्थ से; ज्ववण्णं-सिद्ध होइ-होता (है)।
सम्यग्नान होने पर नियम से सम्यग्दर्शन : मावार्थ-सम्यग्ज्ञान के होने पर नियम से सम्यग्दर्शन होता है। किन्तु सम्यग्दर्शन होने पर सम्यग्ज्ञान होने का कोई नियम नहीं है। क्योंकि सम्यग्दर्शन के होने पर सम्यग्ज्ञान हो सकता है और नहीं भी हो सकता है। यह बात अर्थ के बल से सिद्ध होती है। उदाहरण के लिए, एकान्त तत्वरूप श्रद्धान भी दर्शन है, किन्तु वह दर्शन सम्यग्ज्ञान रूप नहीं है, परन्तु अनेकान्त तन्वरूप जो रुचि है, वह दर्शन है और वह दर्शन सम्यग्ज्ञानरूप है। इस प्रकार यहाँ पर सम्यग्दर्शनरूप दर्शन में और सम्यग्ज्ञान में किसी अपेक्षा से अभेद का कथन किया गया है।
केवलणाणं साई अपज्जवसियं ति दाइयं सुत्ते'। तैत्तियमित्तोत्तूणा केइ विसेसे ण इच्छति ॥34॥ केवलज्ञानं सायपर्यवसितमिति दर्शितं सूत्रे। तेवन्मात्रेण दृप्ताः केऽपि विशेषं नेच्छन्ति ||34||
शब्दार्थ-केवलणाण-केवलज्ञान; साई-सादि अपज्जवसियं-अपर्यवसित (अविनश्वर); (है), त्ति-यह (ऐसा); सुत्ते--सूत्र में; दाइयं-दर्शाया गया है); तौत्तयमित्तोत्तूणा-उतने (इतने) मात्र (से) गर्वित; केइ-कुछ विसेसं-विशेष (केवलज्ञान को पर्यवसित्त) को; ण-नहीं; इच्छति-चाहते (मानते हैं।
एक बार होने पर केवलज्ञान सतत : भावार्थ-केवलज्ञान उत्पन्न होता है, यह एकान्त मान्यता भेद-दृष्टि को लेकर है। जैनदर्शन में गुण और गुणी में न सर्वथा भेद है और न सर्वथा अभेद। किन्तु इन दोनों में कचित् भेदाभेद कहा गया है। केवलज्ञान और केवलदर्शन आत्मा के निज मुण हैं, आत्मस्वरूप हैं। द्रव्यदृष्टि से ये दोनों अनादि अनन्त हैं। परन्तु अनादि काल से आत्मा कर्मों से मलिन हो रही है, इसलिए इसके निज गुण भी मलिन हैं परन्तु जब आत्मा से केवलज्ञानावरण तथा दर्शनावरण कर्मों का विलय हो जाता है, तब आत्मा में केवलदर्शन और केवलज्ञान का प्रकाश हो जाता है। इस दृष्टि से केवलज्ञान
1. व समये। 2. वनत्तिअमेत्तो तूणो।