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सम्मइसुतं
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में भी लागू होता है; क्योकि अवधिज्ञान भी इन्द्रियों की सहायता से अस्पृष्ट एवं अग्राह्य पदार्थों को स्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष जानता है। दर्शन शब्द की व्याख्या के अनुसार अस्पृष्ट पदार्थ अवधिज्ञान के प्रत्यक्ष होते हैं, इसलिए अवधिज्ञान में 'दर्शन' शब्द का प्रयुक्त होना उपयुक्त है।
जं मारे गाने जाणा पालन केगली गिमा तम्हा तं गाणं दसणं च अविसेसओ सिद्धं ॥30॥ यस्मादस्पृष्टान्भावान् जानाति पश्यति च केवली नियमात् । तस्मात् तं ज्ञानं दर्शनं चाविशेषतः सिद्धे ॥30॥
शब्दार्थ-ज-जिस कारण; केवली-केवली (भगवान्)। णियमा–नियम से; अप्पुछे-अस्पृष्टों को; भाये--पदार्थी को; जाणइ-जानता है); पासइ-देखता है); य-और; तम्हा-इस कारण; तं-उसे; णाणं-ज्ञान; दंसणं-दर्शन; च-और; अविसेसओ-भेद रहित; सिर्द्ध-सिद्ध होते है)।
केवली के मेदविहीन जान, दर्शन: भावार्थ केवली भगवान् नियम से अस्पृष्ट पदार्थों को जानते देखते हैं, इसलिए उनमें ज्ञान, दर्शन भेदविहीन सिद्ध होता है। यह पहले ही कहा जा चुका है कि केवली परमात्मा सम्पूर्ण पदार्थों को युगपत् जानते, देखते हैं, इसलिए तीनों लोकों के पदार्थ उनके ज्ञान से स्पृष्ट नहीं होते हैं। वे समस्त पदार्थों का साक्षात् रूप से ग्रहण करते हैं, जिससे उनमें दर्शन और अनन्त ज्ञान रूप एक ही उपयोग सिद्ध होता है।
साई अपज्जवसियं ति' दो वि ते ससमयओ हवइ एवं । परतित्थियवत्तव्यं च एगसमयंतरुप्पाओ ॥31॥ साद्यपर्यवसितमिति द्वावपि ते स्वसमयो भवत्येवम्। परतीर्थिकवक्तव्यं चैकसमयान्तरोत्पादः ॥31॥
शब्दार्थ-ते-वे (अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान); दो वि-दोनों ही साई-सादि (आदि वाले); अपज्जवसियं-अनन्त (है); एवं-इस प्रकार: ससमयओ-स्य समय (परमात्मा); हवइ-होता (है); एगसमयंतरुप्पाओ-एक समय (के) अन्तर (से) उत्पन्न होता है उपयोग(यह); त्ति-यह; च-और; परितित्यियवत्तळ-अन्य मत (का) वक्तव्य (है)।
1. ब" चि। 2. अतित्थय। सं तिथिय।