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सम्मइसुतं
युगपत् अनन्तदर्शन-ज्ञानयुक्त स्वसपय :
मावार्थ-अनन्तदर्शन और अमन्तज्ञान रूप दोनों उपयोग सादि अनन्त हैं अर्थात दोनों एक साथ होते हैं-यही स्वसमय है। जो यह कथन करते हैं कि इन दोनों उपयोग की उत्पत्ति केवली परमात्मा में एक समय के अन्तर से होती है-प्रथम अनन्तदर्शन होता है, फिर एक समय पश्चात् अनन्तज्ञान होता है-यह वक्तव्य परसमय (अन्य मत) है।
एवं जिणपण्णत्ते सद्दहमाणस्स भावओ भावे। पुरिसस्साभिणिबोहे सणसद्दो हवइ जुत्तो ॥32॥ एवं जिनप्रज्ञप्ते श्रद्दधानस्य भावतो भावान् । पुरुषस्याभिनिबोघे दर्शनशब्दो भवति युक्तः ॥32||
शब्दार्थ-एवं-इस प्रकार; जिणपण्णत्ते-जिन (तीर्थकर) कथित; भावे-पदार्थों को (का); भावओ-भायपूर्वक; सद्दहमाणस्स-श्रद्धान करने वाले का: पुरिसस्स-पुरुष के अभिणिबोहे-अभिनिबोध (मन और इन्द्रियों की सहायता से होने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान) में; सणसद्दो-दर्शन शब्द; जुत्तो-युक्त (उपयुक्त); हवइ-होता (है)।
तस्व-रुचि रूप श्रद्धान सम्यग्दर्शन : भावार्थ-जिनेन्द्रदेव द्वारा प्ररूपित तत्त्वों का जो भावपूर्वक श्रद्धान है एवं मन तथा इन्द्रियजन्य ज्ञान से युक्त सम्यग्दर्शन है, उसी के लिए दर्शन शब्द प्रयुक्त होता है। बिना प्रत्यक्ष ज्ञान के सम्यग्दर्शन नहीं होता। तत्त्व में रुधि होना, हेय-उपादेय का ज्ञान होना, भक्ष्य-अभक्ष्य का, सेव्य-असेव्य का विचार होना आदि मतिज्ञान पूर्वक होता है। किन्तु यह परमार्थ प्रत्यक्ष नहीं है। मन तथा इन्द्रियों की सहायता से उत्पन्न होने वाला यह आमिनिबोधिक ज्ञान है। इससे युक्त सम्यग्दर्शन के लिए 'दर्शन' शब्द का प्रयोग करना उपयुक्त है जो स्वात्मानुभूति पूर्वक होता है।
सम्मष्णाणे णियमेण दंसणं दसणे उ भयणिज्ज'। सम्मण्णाणं च इमं ति अत्थओ होइ उदवण्णं ॥33॥ सम्यग्ज्ञाने नियमेन दर्शनं दर्शने तु भजनीयम् ।
सम्यग्ज्ञानं चेदमित्यर्थतः भवत्युपपन्नम् ॥33|| शब्दार्थ-सम्मण्णाणे-सम्यग्ज्ञान में (प्रकट होने पर); णियमेण-नियम से; दसण-दर्शन I. ध भइअच्च। 2. स. अत्यत्त।