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सम्मइसुतं
कहना चाहता है कि एक ही केवल उपयोग के ये भिन्न-भिन्न अंश हैं, अतः केवल नाम का भेद है। आगम में मतिज्ञान के अबग्ग्रह, ईहा, अयाय और धारणा ये चार भेद कहे गए हैं। मूल में उपयोग रूप मति एक ही है। विषय और विषयी का सन्निपात होने पर प्रथम दर्शन होता है। उसके पश्चात् जो पदार्थ का ग्रहण होता है, वह अवग्रह कहलाता है। अवग्रह में पदार्थ का स्पष्ट योध नहीं होता। किन्तु अवग्रह संशयात्मक नहीं है, निश्चयात्मक है। अवग्रह सामान्य को ग्रहण करने वाला दर्शन है। दर्शन तो सामान्य एवं वर्णन रहित है, किन्तु अवग्रह उससे विशिष्ट होने पर भी वर्णन रहित जैसा है। पश्चात् वर्णन या विकल्पपूर्वक पदार्थ का बोध होता है। अतः मतिज्ञान उपयोग रूप है।
दसण पाय नितं तु दंग पत्थि। तेण सुविणिच्छियामो' दंसणणाणा' ण अण्णत्तं ॥22॥ दर्शनपूर्वं ज्ञानं ज्ञाननिमित्तं तु दर्शनं नास्ति ।
तेन सुविनिश्चनुमः दर्शनज्ञाने नान्यत्वम् ॥22॥ शब्दार्थ-दसणपुव-दर्शन पूर्वक; गाणं-ज्ञान (होता है); णाणिमित्तं-ज्ञान (के) निमित्त (पूर्वक); तु-तो; दसणं-दर्शन; गस्थि-नहीं (है); तेण-इससे; (हम), सुविणिच्छियामो-भलीभाँति निश्चय करते हैं), दंसणणापा-दर्शन (और) ज्ञान (में); ण-नहीं (है); अपणतं-अन्यत्व (एकपना)। केवल उपयोग के ये दो अंश : भावार्थ-यह तो अत्यन्त स्पष्ट है कि दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है; ज्ञानपूर्वक दर्शन नहीं होता। इससे ही हम निश्चय करते हैं कि दर्शन और ज्ञान भिन्न-भिन्न हैं। किन्तु दर्शन और ज्ञान का वह भेद व्यवहारी अल्पज्ञ जीवों में होता हैं। सर्वज्ञ भगवान में इनका भेद-व्यवहार नहीं हैं। उनके तो एक ही उपयोग होता है। उस केवल उपयोग के ये दो अंश हैं-एक अंश का नाम केवलदर्शन और दूसरे का नाम केवलज्ञान है।
जइ ऑग्गहमेंतं दंसणं त्ति मण्णसि विसेसियं णाणं । मइणाणमेव दंसणमेवं सइ होइ णिप्पण्णं ॥23||
1. स" मुवि णिच्छयामो। ५. बदसणना। ९. घ' सणमिति। 4. स" विलेसिआ। 5. " हो आपन्न।