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सम्मइसुत्तं
यदि अर्थ प्रतिभासित हो, तो विरोधी प्रतीत होता है। वास्तव में सूत्रों में परस्पर विरुद्ध कथन नहीं है। अतः ज्ञाता पुरुष अर्थ की सामर्थ्य के अनुसार उन सूत्रों की व्याख्या करे।
जेण मणोविसयगयाण दंसणं णत्थि दव्यजायाणं'। तो मणपज्जवणाणं णियमा गाणं तु णिद्दिष्टुं ॥19॥ येन मनोविमा दर्शन नीत जव्यमासानाम् । ततो मनःपर्ययज्ञानं नियमाज्ज्ञानं तु निर्दिष्टम् ।।1911
शब्दार्थ-जेण-जिस (कारण) से; मणो विसयगयाणं-मन (के) विषयगत; दव्वजावाणं-द्रव्य-समूह का; दसणं-दर्शन; णस्थि-नहीं (होता) है, तो इसलिए; मणपज्जवणाणं-मनःपर्ययज्ञान को; णियमा-नियम से; णाणं-ज्ञान: णिविट्ठ-निर्दिष्ट (किया गया है।
मनःपर्ययज्ञान ही है; दर्शन नहीं : भावार्थ-मनःपर्ययज्ञान में विषयभूत पदार्थों का सामान्य रूप से ग्रहण नहीं होता, किन्तु विशेष रूप से ग्रहण होता है। अतएव मनःपर्ययदर्शन नहीं होता। सामान्य रूप से ज्ञान के पहले दर्शन होता है, किन्तु मनःपर्ययज्ञान में ऐसा नियम नहीं है। मनःपर्ययज्ञान बिना दर्शन के ही होता है। मनःपर्ययज्ञान में विशेष का ही ग्रहण होता है; सामान्य का नहीं। अतः मनःपर्ययज्ञान ही है; दर्शन नहीं है।
चखुअचक्खुअवहिकेवलाण समयम्मि दंसणवियप्पा'। परिपढिया* केवलणाणदंसणा तेण ते अण्णा ॥20॥ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां समये दर्शनविकल्पाः । परिपठिताः केवलज्ञानदर्शने तेन ते अन्ये ॥20॥
शब्दार्थ-समयम्मि-आगम में चक्खु-चक्षु (दर्शन); अचल-अचक्षु (दर्शन); अवहि-अवधि (दर्शन); केवलाण-केवल (दर्शन) (ये) दंसणवियप्या-दर्शन (के) भेद (प्रकट किए गए है); (अतएव) परिपढिया-पढ़े गए; तेण-उस से; ते-बे; केवलणाणदसंणा-केवलज्ञान (और) केवलदर्शन: अण्णा-अन्य (भिन्न) (है)।
1. प्रकाशित पाठ 'दम्यजायाण' है! 2. अ" दंसणविअप्पा, ब" दंसणविगप्पो। 3. द परिपेदिया।