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क्रमोपयोगबादी का कथन :
भावार्थ - क्रमवादी कहता है कि जिस प्रकार चार ज्ञान वाला अल्पज्ञानी (छद्मस्थ) निरन्तर ज्ञान-शक्ति-सम्पन्न ज्ञाता द्रष्टा कहा जाता है, उसी प्रकार उपयोग का क्रम होने से केवली भी ज्ञाता द्रष्टा सर्वज्ञ कहलाता है। अतः क्रमवाद में कोई दोष नहीं है। इसका निराकरण करता हुआ सिद्धान्ती कहता है कि केवली भगवान् का शक्ति की अपेक्षा विचार करना उचित नहीं है। क्योंकि उनकी शक्तियाँ व्यक्त हो चुकी हैं। अतएव केवली सर्वज्ञ को पाँच ज्ञान वाला भी नहीं कहा जाता है । केवली भगवान में सब प्रकार की ज्ञान शक्तियों की पूर्णता होने पर भी शक्ति की अपेक्षा से नहीं, अपितु उपयोग की अपेक्षा से कथन किया गया है। क्योंकि आगम में कहीं भी उनके लिए 'पंचज्ञानी' शब्द का व्यवहार नहीं किया गया है।
I.
सम्मतं
पण्णवणिज्जा भावा समत्तसुयुणाणदंसणाविसओ । ओहिमणपज्जवाण उ अण्णणविलक्खणा' विसओ ॥16॥
प्रज्ञापनीया भावाः समस्त श्रुतज्ञानदर्शनविषयः । अवधिमनः पर्वययोस्त्वन्योन्यविलक्षणा विषयः ||16||
शब्दार्थ - समत - समस्त (सभी) सुवणाणदंसणा श्रुतज्ञान ( आगम रूप) दर्शन (का); विसओ - विषयः पण्णवणिज्जा - प्रज्ञापनीय ( शब्दों के द्वारा प्रतिपादन करने योग्य); भावा- पदार्थ (द्रव्यादिक पदार्थ हैं); उ-किन्तु ओहिमणपज्जवाण अवधि (ज्ञान और) मन:पर्ययज्ञान (के): अणोरण- परस्पर विलक्खणा - विलक्षण ( भिन्नता वाले पदार्थ) विसओ विषय ( हैं ) ।
ज्ञान का विषय पदार्थ :
भावार्थ- सम्पूर्ण श्रुतज्ञान रूपी दर्शन का विषय शब्दों से प्रतिपादन करने योग्य द्रव्यादिक पदार्थ हैं। किन्तु अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में यह विशेषता है कि वह परस्पर विलक्षण पदार्थों को भी विषय करता है। श्रुतज्ञान कुछ पर्याय सहित सब द्रव्यों को जानता है । उसका विषय है-- शब्दों के माध्यम से पदार्थ को प्राप्त करना । अवधिज्ञान का विषय सीमित है। अवधिज्ञान इन्द्रियादिक की सहायता के बिना ही रूपी पुद्गल द्रव्य को विशद रूप से जानता है, किन्तु अरूपी को वह भी नहीं जानता । मन:पर्ययज्ञान दूसरे के मनस्थित विषय-वस्तु को ही जानता है, अमूर्त द्रव्यों को जानना उसका भी विषय नहीं है। अतएव चारों ज्ञान सभी पर्यायों सहित द्रव्य को नहीं जानते । परन्तु श्रुतज्ञान से अवधिज्ञान और अवधिज्ञान से मन:पर्ययज्ञान के विषय में उत्तरोत्तर विशेषता लक्षित होती है। 1
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a. विलक्खो ।
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