Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 64
________________ सम्मइसुतं 98 तम्हा चउविभागो जुज्जइ ण उ णाणदंसणजिणाणं। सयलमणावरणमणंतमक्खयं केवलं जम्हा' ॥17॥ तस्मात् चतुर्विभागो युज्यते न तु ज्ञानदर्शनजिनानाम् । सकलमनावरणमनन्तमक्षयं केवलं यस्मात् ॥17॥ शब्दार्थ-तम्हा-इसलिये; चउब्धिभागो-चार विभाग (मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यवज्ञान का विभाग, जुम्मा -युवत है) 5-नहीं (बनता है); जिणाणं-जिन (केवली) के णाणदसण-ज्ञान-दर्शन (में); जम्हा-क्योंकि; केबल-केबल (ज्ञान) सयल-सम्पूर्ण; अणावरणं-अनावरण; अणतं-अनन्त (और); अवयं-अक्षय (है)। केवली के उपयोग में ज्ञान-विभाग नहीं : शब्दार्थ--ज्ञान में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान ये चार विभाग बन जाते हैं, किन्तु ज्ञान, दर्शन की प्रधानता वाले केवली भगवान में ज्ञान, दर्शन का विभाग नहीं बनता; क्योंकि केवलज्ञान सम्पूर्ण विषय को जानने वाला, आवरण से रहित, अनन्त और अक्षय होता है। विशेष-यह है कि ये चारों ज्ञान किसी भी जीव में योग्यतानुसार एक साथ हो सकते हैं। इनमें भेद भी है। किन्तु केवलज्ञान के होने पर इनमें कोई भेद नहीं रह जाता: यहाँ तक कि सूर्य के प्रकाश व ताप की भाँति इनमें कालभेद भी नहीं होता। केवली का ज्ञान-दर्शन एक ही उपयोग रूप होता है, ऐसा मानना चाहिए। परवत्तव्वयपक्खा' अविसिट्टा तेस तेस सत्तेस। अत्थगईय उ तेसिं वियंजणं जाणओ कुणइ ॥18॥ परवक्तव्यपक्षा अविशिष्टा तेषु तेषु सूत्रेषु । अर्थगत्या तु तेषां व्यंजनं ज्ञायकः करोति ||18|| शब्दार्थ-तेसु-उनमें; तेसु-उनमें; सुत्तेसु-सूत्रों में परवत्तव्ययपक्खा-पर (अन्य दर्शनों के) वक्तव्य पक्ष (के समान); अविसिट्ठा-अविशिष्ट (सामान्य है); -तो; जाणओ-जानने वाला; अस्थगईय-अर्थ (की) गति (के अनुसार) तेति-उन (सूत्रों) का; चियंजणं-प्रकटन (व्यक्त); कुणइ-करता है। सामर्थ्य के अनुसार सूत्रों की व्याख्या : मावार्थ-जिस प्रकार से अन्य दर्शनों में कथन हैं, वैसे ही सामान्य रूप से सूत्रो में |, माण। 2. ब" यत्तवय।

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