________________
88
सम्मइसुतं
दंसणणाणावरणक्खए समाणम्मि कस्स पुब्वयरं । होज्ज समं उप्पाओ हंदि दुवे णत्थि उवओगा ||9||
दर्शनज्ञानावरणक्षये समाने कस्य पूर्वतरम् । भवेत् सममुत्पादः खलु द्वौ न स्तः उपयोगी ॥१॥
शब्दार्थ - दंसणणाणावरणक्खए- दर्शनावरण (और) ज्ञानावरण (के) क्षय होने पर समाणमि - समान (रूप में): कस्स किसका ( उत्पाद); पुव्ययरं - पहले (पूर्वतर:)
(होता है, क्योंकि दोनों का): सम- (एक) साथः उपपाओ-उत्पाद; होज्ज-हो (तो); |
हंदि - निश्चय (से); दुवे- दो उबओगा-उपयोग: गत्थि - नहीं ( एक साथ ) हैं ।
केवली के एक ही उपयोग
भावार्थ- आगम का विरोध करने वालों के लिए स्पष्टीकरण के निमित्त यह गाथा कही गई है कि दर्शनावरण तथा ज्ञानावरण का विनाश एक साथ होने से केवलदर्शन और केवलज्ञान की उत्पत्ति एक साथ हो जाती है। यदि क्रम से माना जाए, तो प्रश्न हैं कि दर्शन और ज्ञान में से किसकी उत्पत्ति पहले होती है? इसी प्रकार से दोनों उपयोग क्रम से होते हैं या अक्रम से? इसका स्पष्टीकरण यही है कि पूर्वापर क्रम से दर्शन, ज्ञान केवली में मानना न्यायसंगत नहीं है। क्योंकि क्रमवाद पक्ष में इन दोनों में सावरण मानना पड़ता है जो सम्भव नहीं है । सामान्यतः दोनों उपयोग क्रम से होते हैं। परन्तु केवलज्ञान-काल में केवली सामान्यविशेषात्मक पदार्थ को एक ही समय में जानते हैं, इसलिए उनके दर्शन और ज्ञान उपयोग एक साथ होते हैं। वास्तव में कार्य रूप में भिन्न-भिन्न प्रतीति न होने के कारण सामान्यतः एक उपयोग कहा जाता है।
जइ सव्वं सायारं जाणइ एक्कसमएण सव्वण्णू । जुज्जइ सया वि एवं अहवा सव्वं ण यागाइ ॥20॥
यदि सर्वं साकारं जानाति एक समयेन सर्वज्ञः । युज्यते सदाप्येवं अथवा सूर्वं न जानाति ||10||
शब्दार्थ - जइ -- यदि; सव्वण्णू - सर्वज्ञः एक्कसमएण - एक साथ (एक समय में ); सच्वं - सब; सायारं - साकार ( आकार सहित पदार्थों) को; जाणइ जानता है, (तो) जुज्जइ - युक्तियुक्त ( हो सकती है): सदा-सदा बि- ही; एवं - इस प्रकार अहवा - अथवा; सव्यं - सब को प-नहीं; याणाइ जानता है ।
1. अ' हुए।
४.
व सम्यमाण ।