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सम्मइसुत्त
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शब्दार्थ-सुत्तम्मि-सूत्र(आगम) में चेव-ही; केवलं-केवल (दर्शन और ज्ञान) को; साईअपज्जवसियं-सादि-अनन्त (अपर्यवसित); ति-यह; वुत्तं-कहां गया (है); सुत्तासायणभीरुहि-आगम (सूत्र की) आशातना (से) भयभीतों को (के द्वारा); तं-वह च-और: दहब्वयं-विचारणीय (द्रष्टव्य); होइ-होता (है)।
क्रममावी पक्ष में सादि-अनन्तता नहीं : भावार्थ-आगम में केवलदर्शन और केवलज्ञान को सादि-अनन्त कहा गया है। अतः आगम की आशातना से डरने वालों को इस पर विशेष विचार करना चाहिए कि क्रमभावी मानने पर सादि-अनन्तता किस प्रकार बन सकती है? क्योंकि यदि ऐसा माना जाए कि जिस समय केवलदर्शन होता है, उस समय केवलज्ञान नहीं होता, तो इस मान्यता से आगम का विरोध करना है, और इससे केवलदर्शन-केवलज्ञान में सादि-अनन्तता न बनकर सादि-सान्तता घटित होगी जो आगमोक्त नहीं है। इसलिए आगम को विराध हो, इस अभिप्राय स क्रमभावित्व न मानकर समकाल-भावित्य मानना चाहिए।
संतम्मि केवले दंसणम्मि णाणस्स संभवो णत्यि। केवलणाणम्मि य दंसणस्स तम्हा सणिहणाई ॥४॥
सति केवले दर्शने ज्ञानस्य सम्भवो नास्ति। कवलज्ञान च दशनस्य तस्मात् सनिधनादिम् ॥8॥
शब्दार्थ-केवले-केवल में दंसम्मि -दर्शन में संतम्मि-होने पर; गाणस्स-ज्ञान का (केवलज्ञान का होना); संभयो-सम्भव; पत्थि-नहीं है; केवलणाणम्मि-केवलज्ञान में च-और; दंसणस्स-दर्शन (केवलदर्शन का होना सम्भव नहीं है); तम्हा-इस कारण से; सणिहणाई-सादि-सान्त (हो जाएगा)।
केवली में जान-दर्शन युगपत् : भावार्थ-केवली भगवान के केवलदर्शन होने के पश्चात केवलज्ञान नहीं होता। इसी प्रकार केवलज्ञान होने पर केवलदर्शन नहीं होता। क्योंकि इस प्रकार का क्रमत्व उनके नहीं होता। दर्शनावरण और ज्ञानावरण का क्षय एक काल में समान रूप से होने के कारण केवलदर्शन और केवलज्ञान एक समय में एक ही साथ समान रूप से उत्पन्न होते हैं। फिर, यह प्रश्न उत्पन्न हुए बिना नहीं रहता कि क्रमवाट पक्ष में केवली की आत्मा में ज्ञान, दर्शन में से पहले कौन उत्पन्न होता है?