Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 56
________________ सम्म सुतं उक्त गाथा "कसा पाहुड" ग्रन्थ 1 में गा 143 रूप में ज्यों की त्यों उपलब्ध होती है । केइ' भणति जइया जाणइ तइया ण पासइ जिणों ति । सुत्तमबलंबमाणा' तित्थयरासायणाभीरू ॥4॥ केचिद् भणन्ति यदा जानाति तदा न पश्यति जिन इति । सूत्रमवलम्बमाना तीर्थकराऽऽशातनाभीरवः ||4|| , शब्दार्थ - तित्ययरासायणाभीरू - तीर्थंकर (की) आशातना ( अवज्ञा से ) भयभीत ( डरने वाले ): सुत्तमवलम्बमाणा-सूत्र (आगम ग्रन्थों का लेने के ( आचार्य कहते हैं ); जइया - जय (सर्वज्ञ), जाणइ - जानते हैं) तइया - तब जिणो- केवली; ग-नहीं; पासइ-देखते ( हैं ); त्ति - यह भांति - कहते हैं । 85 कुछ आचार्यों का भिन्न मत : भावार्थ - कई (श्वेताम्बर) आचार्य तीर्थंकरों की अवज्ञा से भयभीत हो आगमग्रन्थों का आलंबन लेकर यह कहते हैं कि जिस समय सर्वज्ञ जानते हैं, उस समय देखते नहीं वे अन्य अल्प ज्ञानियों की भाँति सर्वज्ञ में भी दर्शनपूर्वक ज्ञान क्रमशः मानते हैं। क्योंकि जिस समय जानने की क्रिया होगी, उस समय देखने की क्रिया नहीं हो सकती और जिस समय देखने की क्रिया होगी, उस समय जानने की क्रिया नहीं हो सकती। दोनों में समय मात्र का अन्तर अवश्य पड़ता है। (किन्तु सर्वज्ञ के सम्बन्ध में यह कहना ठीक नहीं है ) । केवलणाणावरणक्खयजायं केवलं जहा णाणं । तह दंसणं पि जुज्जइ णियआवरणक्खयस्संते ॥5॥ केवलज्ञानावरणक्षयजातं केवलं यथा ज्ञानं । तथा दर्शनमपि युज्यते निजावरणक्षयस्यान्ते ॥5॥ शब्दार्थ - जहा - जिस प्रकारः केवलं गाणं - केवलज्ञान (सम्पूर्ण ज्ञान); केवलणाणावरणक्खवजायं केवलज्ञानावरण (के) क्षय (से) उत्पन्न होता है); तहा उसी प्रकार : नियआवरणक्खयस्ते निज आवरण ( दर्शनावरण) क्षय (के) अनन्तर; दंसणं-दर्शन (केवलदर्शन) पि-भी: जुज्जइ - घटता ( है ) । 1. केई | ४. थ" मुति (सुत्त) मवलंबसाणा । 3. व" निजआवरणचखाए सते ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131