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जीवकंडयं
जं सामपणं गृहणं दंसणमेयं निसेसियं जाणं । दोह वि णयाण एसो पार्डेक्कं अत्थपज्जाओ ॥1॥
यत् सामान्यग्रहणं दर्शनमेतद् विशेषितं ज्ञानम् । द्वयोरपि नययोरेष प्रत्येकमर्थपर्यायः || 1 ||
शब्दार्थ - जं-- जो; सामण्णं - सामान्य ( का) : गहणं - ग्रहण ( है, वह): एयं - यह; दंसणं-दर्शन (है); विसेलियं विशेष (रूप से जानना ); गाणं- ज्ञान (है); दोपह- दोनों; वि-भी (ही); णयाण-नयों (के): पाडेक्क- प्रत्येक (पृथक् पृथक रूप से) एसो - यह ( अर्थबोध सामान्य); अत्थपज्जाओ - अर्थपर्याय है ।
दर्शन और ज्ञान भिन्न-भिन्न हैं :
भावार्थ - किसी भी वस्तु का सामान्य रूप से जानना दर्शन है और विशेष रूप से जानना ज्ञान है। दोनों ही नय भिन्न-भिन्न रूप से अर्थपर्याय को ग्रहण करते हैं । द्रव्यार्थिक नय का अर्धपर्याय का विषय सामान्य अर्थबोध है और विशेष रूप से बोध पर्यायार्थिक नय में होता है। (यह पहले ही कहा जा चुका है कि वस्तु में सामान्य और विशेष दोनों प्रकार के धर्म (स्वभाव) पाये जाते हैं) ।
दव्वट्टियो वि होऊण दंसणे पज्जवट्टियो होइ । उवसमियाईभावं पडुच्च गाणे. उ विवरीयं ॥१॥ द्रव्यार्थिकोऽपि भूत्वा दर्शने पर्यायार्थिको भवति । औपशमिकादिभाव प्रतीत्य ज्ञाने तु विपरीतम् ॥2॥
शब्दार्थ - दस-दर्शन ( कं समय ) में दव्वद्वियो- द्रव्यार्थिक (नय का विषय); बि-भी; होऊण हो कर (जीव ) उपसमियाईभावं-औपशमिक आदि भाव (की)
1. प्रकशिल पाठ है- 'साम' ।