________________
82
समन्वय में जैनदृष्टि :
-
भावार्थ इन दोनों नयों के परस्पर मिल जाने पर वस्तु के सम्बन्ध में जो विकल्प प्रकट किए जाते हैं, वे ही सिद्धान्त की प्ररूपणा हैं। सापेक्षनय ही सम्यकू कहे गये हैं। निरपेक्ष नय मिथ्या हैं। निरपेक्ष रूप से जो कथन किया जाता है, वह तीर्थंकरों की वाणी के विरुद्ध है।
सम्म सुतं
पुरिसज्जायं तु पडुच्च जाणओ पण्णवर्णेज्ज अण्णयरं । परिकम्मणाणिमित्तं दाएही सो विसेसं पि ॥54॥
E.
पुरुषजातं तु प्रतीत्य ज्ञापकः प्रज्ञापयेदन्यतरत् । परिकर्मणा निमित्तं दर्शयिष्यति सा विशेषमपि ॥54॥
शब्दार्थ - जाओ - जानकार (सिद्धान्तज्ञाता); पुरिसज्जायं-पुरुष समूह हो; तु-तो; पडुच्च - अपेक्षा करके; अण्णयर- दोनों में से किसी एक (नय का); पण्णवर्णेज्ज-प्रतिपादन करना चाहिए: परिकम्मणा - गुणविशेष के आधार (के); णिमित्तं निमित्त (से) : लो-वह विसेस - विशेष को पि-भी: दाएही - दिखलायेगा !
वक्ता किसी एक नय से कथन करे :
भावार्थ अनेकान्त सिद्धान्त का जानकार वक्ता श्रोताओं को ध्यान में रखकर किसी एक नय के विषय का प्रतिपादन करे। जो श्रोता द्रव्यनय का आश्रय लेकर वस्तु तत्त्व को समझना चाहता है, उसके समक्ष द्रव्यदृष्टि से और पर्यायवादी को पर्यायनय की अपेक्षा से समझाने का प्रयत्न करे। अभिप्राय यही है कि दोनों नयों ( दृष्टियों) को अपने ध्यान में रख कर विषय तथा प्रसंग के अनुसार प्रतिपादन करे। विशेष रूप से सुनने वालों की बुद्धि को संस्कारी बनाने के लिए विशिष्टता का प्रतिपादन करना चाहिए। अनेकान्त ही उस विशिष्टता को दर्शा सकता है।
यहा ।