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सम्म सुतं
दव्यट्ठियस्स' जो चेव कुणइ सो चेव वेयइ' णियमा । अण्णो करेइ अण्णो परिभुंजइ पज्जवणयस्स ||52||
द्रव्यार्थिकस्यश्चैव करोति स चैव वेदयते नियमात् । अन्यः करोत्यन्यः परिभुक्ते पर्यवनयस्य ॥ 52 ||
शब्दार्थ - जो-जो ; चेव- ही कुणाइ-करता (है); सो- वह चेव- ही; णियमा नियम से; वेयइ - भोगता है, यह मत ); दव्यडियस्स - द्रव्यार्थिक (नय) का ( है ) अण्णो-अन्य; करेड़- करता है और ); अण्णो- अन्य परिभुजइ - भोयता (है, यह मत ); पज्जवणयस्स - पर्यायार्थिक ( नय) का ( है ) ।
और भी
भावार्थ- द्रव्यार्थिकनय के अनुसार जीब जो कुछ कर्म का बन्ध करता है, नियम से वही भोगता है। किन्तु पर्यायार्थिकनय नय की दृष्टि में करता कोई अन्य है और भोगता कोई अन्य है। द्रव्य-दृष्टि से कर्मों को करने वाला और भोगने वाला एक ही है। किन्तु पदार्थ को क्षण-क्षण में उत्पन्न मानने वाला कर्म के करने वाले और भोगने वाले को भिन्न-भिन्न मानता है। क्योंकि जिसने कर्म किया था, वह दूसरे क्षण में ही परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार किया किसी अन्य ने और भोगा किसी अन्य ने। यह पर्यायार्थिकनय की मान्यता है।
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जे' वयणिज्जवियप्पा संजुज्जेतेसु होति एएसु । सा ससमयपण्णवणा' तित्थयरासायणा अण्णा ||53||
ये वचनीयविकल्पाः संयुज्यमानेषु भवन्ति एतेषु । सा स्वसमयप्रज्ञापना तीर्थकराशातना अन्याः ॥53॥
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शब्दार्थ - एएस- इन दोनों के संजुज्जतेसु- संयुक्त होने पर जे जो ( वस्तु के सम्बन्ध में): वयणिज्जवियप्पा - कथन करने योग्य विकल्प होते-होते ( हैं ); सा- वह ससमयपण्णवणा- अपने सिद्धान्त की प्ररूपणा (है); अण्णा - अन्य ( विचारधारा); तित्ययरामायणा -- तीर्थकर की आशातना ( हैं ) ।
ब' इव्विस्त |
ब' देऊई।
1.
2.
1. ब जं ।
4.
समपन्नवणा ।