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सम्मइसुतं
न च बाह्यो भावोऽभ्यन्तरश्चास्ति समये। नोइन्द्रियं पुनः प्रतीत्य भवत्यभ्यन्तरविशेष: 1500
शब्दार्थ-समयम्मि-शास्त्र में; बाहिरओ-बाहरी; अडिमंतरओ-भीतरी; य-और; भावो-भाव: न-नहीं; अन्य-है; य-और, गोपियं-नोइन्द्रिय (मन); पडुच्च-आश्रय करके अभिंतरबिसेसो-अभ्यन्तर विशेष: होइ--होता (है)।
बाह्याभ्यन्तर व्यवस्था की विशिष्टता : भावार्थ-शास्त्र में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि अमुक भाव बाह्य है और अमुक भीतरी है। जो पदार्थ मन का विषय होकर किसी भी इन्द्रिय से नहीं जाना जाता है, यह भाव-पदार्थ भीतरी कहा गया है और जो मन से विज्ञात कर इन्द्रियों से जाना जाता है, उसे बाहरी पदार्थ कहते हैं।
दव्वट्ठियस्स आया बंधइ कम्मं फलं च वेडए। वीयस्स' भावमत्तं ण कुणइ ण य कोई वेइए 151॥
द्रव्यार्थिकस्यात्मा बध्नाति कर्म फलं च वेदयते। द्वितीयस्य भावमात्रं न करोति न च कश्चिद् वेदयते ॥51॥
शब्दार्थ-आया-आत्मा; कम्म-कर्म को; बंधइ-बाँधता (है); फलं-फल को च-और; वैगा-भोगता है); (यह मत), दबवियस्स-द्रव्याधिक (नय) का (है); वीयस्स-दूसरे का (पर्यायार्थिक नय का) भावतं-भाष मात्र (है वह); ण-नहीं; कुणइ-करता (ह-बन्ध); ण-नहीं; य-और; कोई-कोई, वेइए-भोगता है)।
दोनों नयों की मान्यता : भावार्थ-द्रव्यार्थिकन्य के अनुसार आत्मा कर्म का बन्ध करता है और उसका फल भोगता है। किन्तु पर्यायार्थिकनय नित्यता नहीं मानता है। उसके अनुसार आत्मा की केवल उत्पत्ति होती है। आत्मा म कुछ करता है और न कोई फल भोगता है। द्रव्यार्थिकनय इसलिए नित्यता मानता है कि संसार के किसी भी द्रव्य का कभी नाश नहीं होता। किन्तु पर्यायार्थिक पर्याय का आश्रय करने वाला है जो क्षणिक व अनित्य
1. ब" बिइअस्स। 2. वकीदि।