Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 50
________________ सम्मइसुत्तं 79 में मिली हुई हैं। इसलिये उनका वर्णन संसारी जीव के रूप में करना चाहिए। यह शरीर है और यह जीव है-इस प्रकार अलग-अलग किसी देश का विभाग नहीं किया जा सकता। संसारी जीव में आत्मगत या शरीर सम्बन्धी जिन धर्मों का या अवस्थाओं का अनुभव होता है, वह दोनों के संयोग के कारण होता है। इसलिये उन्हें किसी एक का न मान कर दोनों का मानना चाहिए। एवं एगे आया एगे दंडे' य होइ किरिया य। करणविसेसेण य तिविहजोगसिद्धी वि' अविरुद्धा ॥49॥ एवमेकस्मिन्नात्मन्ये दण्डे च भवति क्रिया च। करण-विशेषेण च त्रिविधयोगसिद्धिरप्यविरुद्धाः ॥49॥ शब्दार्थ-एवं-इस प्रकार; एगे-एक में आया-आत्मा; एगे-एक में; य-और दंडे-दण्ड (मन, वचन और शरीर में); य-और (एक), किरिया-क्रिया (सिद्ध होती है); य-और; करणविसेसेण-करण विशेष से (के कारण); तिविहजोगसिद्धी-विविध योग (मन, यवन, काय की) सिद्धि; वि-भी; अविरुद्धा-अविरुद्ध (है)। आत्मा और मन, वचन, काय का एकल्प : भावार्थ-इस प्रकार आत्मा और मन, वचन, शरीर की एक क्रिया सिद्ध होती है। मन, वचन और काय की विशेषता के कारण इसमें त्रिविध योग की सिद्धि विरुद्ध नहीं पड़ती है। यहाँ पर मन का अर्थ भावमन से है, वधन से अभिप्राय आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दन से है और काय का अर्थ कार्मण काययोग से है। एकत्व बताने का प्रयोजन यही है कि आत्मा और पुद्गल द्रव्य में कधित् अभिन्न सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध के कारण ही ऐसा कहा जाता है कि आत्मा एक है और उसके आश्रित मन, वचन और शरीर की क्रियाएँ रहती हैं। इनकी विविधता के कारण आत्मा की क्रिया की त्रिविधता का वर्णन किया जाता है। ण य बाहिरओ मावो' अदिमंतरओ य अस्थि समयम्मि। गोइंदियं पुण पडुच्च होइ .अमितरविसेसो।। 50 ।। 1. "इंडो। 2. ब" किरिआए। 3. खंउ। 4. ध भावे। 5. अ. अमंतरओ। 6. अ अटमंतरबिसेसो, व" अमितरो, मावो।

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