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सम्मइसुतं
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भी पर्याय शब्दों से कही जाती है, वह व्यंजनपर्याय में अन्तर्भूत मानी जाती है। इस अपेक्षा से उसमें वचन-विकल्प बन जाते हैं। अतः अर्थपर्याय की अपेक्षा उसमें सातों भंग घटित हो जाते हैं। किन्तु व्यंजनपर्याय का प्रतिपादन शब्दों द्वारा होता है, इस कारण उसमें 'स्याद्वक्तव्य' आदि चार भंग घटित नहीं होते। व्यंजनपर्याय में केवल सविकल्प और निर्विकल्प वचनमार्ग होते हैं। सविकल्प से यहाँ अभिप्राय अस्तिरूप भंग से है और निर्विकल्प से -गरिजम्य भंग से है। इनका उपाका तीसरा भंग भी व्यंजनपर्याय में घटित हो सकता है। इस तरह अर्थपर्याय में सातों भंग और व्यंजनपर्याय में दो या तीन भंग घटित होते हैं।
जह दवियमप्पियं तं तहेव अत्थि ति पज्जवणयस्स। ण य ससमयपण्णवणा' पज्जवणयमेत्तपडिपुण्णा ॥42।।
यथा द्रव्यमर्पितं तत्तथैवास्तीति पर्यवनयस्य । न च स्वसमयप्रज्ञापना पर्यवनयमात्रप्रतिपूणों ॥42||
शब्दार्थ-जह-जैसे; दवियं-द्रव्य; अप्पियं-अर्पित, विवक्षित; तं-बह; तहेब वैसा ही; अस्थि-है; तिन्याह (ऐसा); पज्जवणयस्स-पर्यायार्थिकनय का (कथन है); (किन्तु) पज्जवणयमेंत-पर्यायार्थिकनय मात्र; पडिपुण्णा-परिपूर्ण ससमयपण्णवणा-स्वसमय (आत्मतत्त्व की) प्ररूपणा; ण-नहीं (है)।
केवल पर्यायार्थिकनय का वक्तव्य पूर्ण नहीं : भावार्थ-जो द्रव्य जिस रूप में विवक्षित है, वह वैसा ही है। पर्यायाथिकनय की इस देशना के अनुसार वस्तु अपने रूप में विद्यमान है और वही वस्तु है। परन्तु स्वसमय (आत्मतत्त्व) की प्ररूपणा के अनुसार द्रव्य अखण्ड चैतन्य है, अतः पर्याय मात्र में पूर्ण नहीं है। इसलिये पर्यायाथिकनय की देशना पूर्ण नहीं है।
पडिपुण्णजोव्दणगुणो जह लज्जइ बालभावचरिएण। कुणइ य गुणपणिहाणं अणागयसुहोघहाणत्यं ॥431 प्रतिपूर्णयौवनगुणो यथा लज्जते बालभावचारित्रेण ।
करोति च गुणप्रणिधानमनागतसुखोपधानार्थम् ॥43।। शब्दार्थ-जह-जैसे; पडिपुण्ण व्यणगुणो-पूर्ण युवावस्था (को प्राप्त पुरुष) वालभाव
1. बय समयपन्नवणा। १. व चरिपहि।