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सम्मइसुत्तं
शब्दार्थ-अह-और; पण्णषणाविसओ-प्रतिपादन का विषय (जो कहा जा रहा है); . (वह) लोइय-लौकिक (जन) (और), परिच्छय-किपः (बन को.) जुहो.. सुख शेयर हो जाए); य-और; णिव्यवयणपडिवत्तिमग्गो-निश्चित ज्ञानमार्ग (के प्रतिपादक) वचन (है); तेण-इसलिये; त्ति-यह; वीसत्यमुवणीओ-विश्वस्त करने वाला है)।
दृष्टान्त की सार्थकता : भावार्थ-उपर्युक्त जो रत्नावली का दृष्टान्त दिया गया है, वह इसलिये कि जो कहा जा रहा है वह व्यवहार जानने वाले और शास्त्र जानने वालों को सरलता से समझ । में आ जाए। क्योंकि ये बचन निश्चित अर्थ के बोधक तथा विश्वास उत्पन्न करने वाले हैं। वास्तव में यह विषय परमार्थ का है।
इहरा समूहसिद्धो परिणामकओ च्च जो जहिं अत्थो। ते तं च ण तं तं चेव व ति णियमेण मिच्छतं ॥27॥ इतरथा समूहसिद्धः परिणामकत इव यो यत्रार्थः । तत् तच्च न तत्तद् चैव वेति नियमेन मिथ्यात्वम् ॥27॥
शब्दार्थ-इहरा-अन्य प्रकार से (सापेक्षता न हो तो); समूहसिद्धो-समुदाय (रूप में) प्रतिष्ठित (मत में); परिणामकओ-परिणाम (रूप) कार्य (उत्पन्न होता है); व-ही; जो-जो; जहि-जिस में (कारण में); अत्थो-पदार्थ (सत् होता है); ते-वह (कार्य), तं-उस (कारण रूप है) व-अथवा; ण-नहीं है वह कार्य-कारण रूप); च-और तं-यह (कार्य); त-कारण (रूप); चेव-ही (है); ति-यह (मान्यता); णियमेण-नियम से (सिद्धान्ततः); मिश्छत-मिथ्यात्व (विपरीत कहा जाता है।)
सापेक्षता न हो तो मिथ्यात्व (विपरीतता) : भावार्थ-नयवाद की सापेक्षता में जो अभी कहा गया है, उससे भिन्न रूप में जो भी मान्यताएँ हैं, उन सब में मिथ्यात्य (असतपना) है, जैसे कि परिणामयादी कार्य को सत् मानते हैं। सत्कार्यवादी सांख्य मत के अनुसार स्वयं कारण ही कार्य रूप में परिणत होता है। किन्तु कई मंतवादी कार्य को असत् पानते हैं। वैशेषिक आदि की मान्यता है कि अवयवों से अवयवी रूप कार्य प्रारम्भ होता हैं। इन से भिन्न अद्वैतवादी हैं जो द्रव्य मात्र को स्वीकार करते हैं, कार्य-कारण भाव को नहीं मानते। ये सभी मान्यताएँ असत या मिथ्या हैं, क्योंकि परस्पर में ये एक-दूसरे का निराकरण करती हैं। परन्तु जब इनका सापेक्षता रूप से कथन किया जाता है, तो कथंचित् सत्यता सिद्ध होती है।