Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 36
________________ सम्मइसुत्तं पडिबद्धा जहाँ (जब) धागे विशेष (में) पिरो (दी जाती हैं तो); रयणाबलि-रत्नावली (रत्नों का हार); ति-यह भण्णइ-कही जाती (है); (और) पाडिक्कसण्णाओ-प्रत्येक (अपने-अपने) संज्ञा (नाम को, मणि इस नाम को); जहति-छोड़ देती (है)। और : भावायं-मणि के दाने जब धार में पिरो दिए जाते हैं, तब वे अपना मणि नाम छोड़ कर 'रयणावली' यानी रलावली (रत्नहार) कहलाती है। कहने का अर्थ यही है कि धागे में संलग्न होकर प्रत्येक मणि का दाना हार बन जाता है। सभी सामान्य रूप से उसे हार ही कहते हैं। तह सब्वे णयवाया' जहाणुरूवविणिउत्तवत्तव्वा । सम्मइंसणसई लहंति ण विसेससण्णाओ' ।।25।। तथा सर्वे नयवादा यथानुरूपविनियुक्तवक्तव्याः । सम्यग्दर्शनशब्दं लभन्ते न विशेषसंज्ञाः ॥25॥ शब्दार्थ-तह-उसी प्रकार सव्ये-सब; णयवाया-नयवाद; जहाणुरूवविणिउत्तवत्तदायथानुरूप वचनों (में) विनियुक्त (प्रकट होने वाले) सम्मइंसणसई-सम्यग्दर्शन शब्द (को); लहंति-प्राप्त करते (है); विसेससण्णाओ-विशेष संज्ञा(वाले हो कर); ण-नहीं। नय कैसे सम्यक् होते हैं ? मावार्थ-वैसे ही जितने भी नयवाद हैं, वे सब अपने-अपने कथन को यथानुरूप सापेक्ष रीति से प्रकट करने पर ही 'सम्यग्दर्शन' या 'सुनच' शब्द से याच्य होते हैं। वे विशेष संज्ञा रूप जो मिध्यादर्शन' या 'दुर्नय' है, उसका परित्याग कर देते हैं। मिथ्या या निरपेक्ष दृष्टि का त्याग किए बिना कोई नय 'सुनय' नहीं हो सकता। लोइयपरिच्छयसुहो' णिच्छयवयणपडिवत्तिमग्गो य। अह पण्णवणाविसओ त्ति' तेण वीसत्थमुवणीओ ॥26॥ लौकिकपरीक्षकसुखो निश्चयश्चनप्रतिपत्तिमार्गश्च । अथ प्रज्ञापनविषय इति तेन विश्वस्तमुपनीतः ॥26।। 1. ब जहाणुरूवं निउत्त। 2, न यि संससन्नाओ। 5. बपरित्थअमुहो। 4. सति।

Loading...

Page Navigation
1 ... 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131