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सम्मइसुत्तं
दोनों नयों की विषय-मर्यादा : मावार्थ-सत्ता सामान्य की अपेक्षा सभी पदार्थ सब तरह से नित्य और भेदरहित हैं। भेदरहित द्रव्य का कथन द्रव्यार्थिकनय का वक्तव्य है। किन्तु भेदरूप कथन के प्रारम्भ होते ही पर्यायार्थिकनय का विषय आ जाता है। 'सत' के भेद से ही पर्यायार्थिकनय की बक्तय्यता प्रारम्भ हो जाती है।
जो' पुण' समासओ च्चिय वंजणणियओ य अणियओ य। . अत्थगओ य अभिण्णो भइयव्यो वंजणवियप्पो' ॥30॥
यः पुनः समासतश्चैव व्यंजननियतश्चानियतश्च । अर्थगतश्चाभिन्नों भक्तव्यो व्यंजनविकल्पः ॥30॥
शब्दार्थ-जो-जो; पुण-फिर; समासओ-संक्षेप (में); च्चिय-ही; वंजणणियओव्यंजननियत (शब्दसापेक्ष); य-और; अत्यणियओ-अर्थ-नियत (अर्धसापेक्ष) (है); य-और: लाथगरे । अर्थात (निया); अभिण्णे; अभिन्न (है); य-औरः बंजणवियप्पो-व्यंजन-विकल्प (शब्दगतभेद); भइयवी-भाज्य (भिन्न तथा अभिन्न)
व्यंजन पर्याय भिन्न तथा अभिन्न : भावार्थ-प्रत्येक पदार्थ भेदाभेदात्मक है। यह विभाग संक्षेप में शब्द-सापेक्ष और अर्थ-सापेक्ष है। अर्थगत विभाग अभिन्न है, पर शब्दगत विभाग भिन्न है और अभिन्न भी है। इसका तात्पर्य यह है कि अर्थगत सदृश परिणमन व्यंजन पर्याय है। इस व्यंजन पर्याय में जो अन्य अनेक विकल्प (भेद) हैं, वे सब अर्थपर्याय हैं। उदाहरण के लिए, 'जीवत्व' यह सामान्य धर्म है। संसारी जीव, मुक्त जीव आदि इसके विभाग हैं। इन में समान प्रतीति तथा शब्दवाच्यता का जो विषय है, यही सदृश परिणमन तथा व्यंजनपर्याय है। व्यंजन पर्याय शब्दसापेक्ष है। इस व्यंजनपर्याय रूप सदृशारिणमन में जो शैशव, यौवन, वृद्धत्व आदि अवस्थाएँ हैं, वे सब अर्थपर्याय हैं। इन्हें जो अभिन्न कहा गया है, वह अन्तिम भेद की अपेक्षा कहा गया है। क्योंकि मनुष्य पर्याय में ही ये सब अवस्थाएँ घटित होती हैं।
1. बसो 2. अरुण। 3.दतिगप्पा