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रूप से पुरुष ही लक्षित होता है। किन्तु जब द्रव्य की अर्थपर्याय पर दृष्टि जाती है, तब उसकी विभिन्न अवस्थाएँ-जैसे कि मनुष्य की शैशव, बाल्य, युवा, प्रौढत्व आदि अवस्थाएँ लक्षित होती हैं। ये द्रव्य की अर्थपर्यायें कही जाती हैं। इस प्रकार एक द्रव्य में व्यंजनपर्याय और अर्थपर्याय दोनों होती हैं।
सवियप्पणिब्वियप्पं इय पुरिसं जो भणेज्ज अवियप्पं । सवियप्पमेव वा णिच्छएण ण स णिच्छिओ' समए ॥35॥
सविकल्पनिर्विकल्पमितः पुरुषो यो भणेदविकल्पम् । सविकल्पमेव वा निश्चयेन न स निश्चित: समये ॥35॥
शब्दार्थ-जो-जो सवियप्पणिबियप्प-सविकल्प-निर्विकल्प (रूप द्रव्य है); इय-इस कारण; पुरिसं-पुरुष को अधियप्पं-निर्विकल्प (मात्र) सवियप्पमेव-सविकल्प (मात्र) ही; वा-अथवा; भणज-कहता है, स-वाह (मनुष्य); समए-आगम शास्त्र) में ण-नहीं: णिच्छिओ निश्चित (स्थिरबुद्धि है)।
सविकल्प या निर्विकल्प मानना अनिश्चितता : भावार्थ-सभी व्यंजनपर्याय अभिन्न-भिन्न उभय रूप हैं। किन्तु जो व्यक्ति सविकल्प-निर्विकल्पात्पक पुरुष को केवल निर्विकल्प युद्धि का विषय या केवल सविकल्प बुद्धि का विषय मानता है, वह आगम में स्थिर बुद्धि वाला नहीं है। क्योंकि जितनी भी व्यंजनपर्यायें हैं, वे सब अनेक रूप हैं। अतः पुरुष को जानते-देखते समय द्रष्टा को दोनों प्रकार की वृद्धि होती है। आगम में जीव की शुद्ध और अशुद्ध दोनों अवस्थाओं की दृष्टि से पुरुष का उभय रूप कथन किया जाता है।
अत्यंतरभूएहि य णियएहि य दोहि समयमाईहिं। वयणविसेसाईयं दव्वमवत्तव्वयं पडइ ॥36||
अर्थान्तरभूतेन च निजकेन च द्वाभ्यां समक्रमादिभिः।
वचनविशेषातीतं द्रव्यमवक्तव्य पतति (प्राप्नोति) 136|| शब्दार्थ-अत्यंतरभूएहि-अर्थान्तरभूत (परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव) के द्वारा; य-और; णिवएहि-निज (स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव) के द्वारा; दोहे-दोनों के द्वारा समयमाईहिं-एक साथ से (में); वयणविसेसाईयं-वचन विशेष
1. य नय निच्छिओ।