Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 34
________________ सम्मइसुतं तस्मात् सर्वेऽपि नया मिथ्यादृष्टयः स्वपक्षप्रतिबद्धाः । अन्योन्यमिश्रिताः पुनर्भवन्ति सम्यक्त्वसद्भावाः ॥21॥ शब्दार्थ-तम्हा-इसलिए, सब्वे-सयः वि-ही; णया-नय; सपक्खपडिबद्धा-अपने (अपने) पक्ष (एकान्त में) संलग्न; मिच्छादिट्ठी-मिथ्या रूप (है); उण-फिर; (ये ही) अण्णोण्ण-एक-दूसरे (परस्पर) (के) पिस्सिया–पक्षपाती (सापेक्ष); सम्मत्तसब्भावासम्यक् रूप (वाले) हवंति-होते हैं)। नए भी मिथ्या और सम्पन : भावार्थ-अपने-अपने पक्ष का कथन करने में संलग्न सभी निरपेक्ष नय मिथ्यादृष्टि हैं। जब कोई दृष्टि दूसरे का निराकरण करती हुई अपने विषय की पुष्टि करती है, तब निरपेक्ष कथन करने के कारण मिथ्या कही जाती है। किन्तु जब वही दूसरे के विषय का निराकरण नहीं करती हुई परस्पर सापेक्ष दृष्टि से प्रतिपादन करती है, तब सम्यक् होती है। विशेष-स्त के धागे जब तक अलग-अलग रहते हैं, तब तक परस्पर मिले बिना वस्त्र तैयार नहीं होता। किन्तु परस्पर में एक-दूसरे का अबलम्बन लेने पर या सापेक्ष होने पर वे भी धागे अन्त्रित हो कर बस्त्र की अर्थक्रिया को सम्पन्न करते हैं। इसी प्रकार दोनों नयों के परस्पर सापेक्ष होने पर ही अर्थज्ञान कार्यकारी होता है। जह णेग लक्खणगुणा वेरुलियाई मणी विसंजुत्ता। रयणावलिववएसं ण लहति महग्घमुल्ला वि ॥22॥ यथानेकलक्षणगुणा वेडूर्यादिमणयो विसंयुक्ताः। रत्नावलिव्यपदेशं न लभन्ते महर्षमूल्या अपि ॥22॥ शब्दार्थ-जह-जिस प्रकार णेग-अनेक: लक्खणगुणा- लक्षण (और) गुण (बाले); वेरुलियाई मणी-वैडूर्य मणि; महग्यमुल्ला-बहुत मूल्य (चाले); यि-भी, विसंजुत्ता-बिखरे हुए (पिरोये हुए, संयुक्त नहीं होने से); रवणावलिबवएसं-रत्नावली नाम (व्यवहार को) ण-नहीं लहति--प्राप्त (करते) हैं। समन्वित ही सुनयः मागर्थ-अनेक लक्षण तथा गुणों से सुसम्पन्न वैडूर्य आदि मणि बहुमूल्य होने पर I, प्रकाशित 'णेग' के स्थान पर 'णेय' है। अणेय । 2. ब" गणागणवेफलिआश्मणी।

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