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सम्मसुतं
नित्य और अनित्य दोनों पक्षों में सुख-दुःख नहीं
भावार्थ - एकान्त से नित्यवादी पक्ष में सुख-दुख का अस्तित्व नहीं हो सकता है और इसी प्रकार से सर्वथा अनित्यवादी पक्ष में भी सुख-दुःख की कल्पना नहीं की जा सकती ।
विशेष- नित्यवादियों के अनुसार नित्य का लक्षण है - अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपं नित्यम्' अर्थात् जो अपने रूप से हटता नहीं है, जो उत्पन्न नहीं होता, जिसमें परिवर्तन नहीं होता और जो सदा एक रूप रहता है, उसे नित्य कहते हैं। इस प्रकार नित्यवादी वस्तु में परिणमन नहीं मानते । वस्तु में परिवर्तन नहीं होने से उसमें सुख-दुःख का परिणमन कैसे हो सकता है ? इसलिए एकान्त नित्य मानने से आत्मा में सुख-दुःख की उत्पत्ति नहीं हो सकती । अनित्य पक्ष में वस्तु प्रति क्षण उत्पन्न तथा नष्ट होती रहती है। इसलिए मैं पहले सुखी था, अब दुखी हूँ, ऐसा सम्बन्ध कैसे स्थापित किया जा सकता है ? क्योंकि ध्रुवत्व के अभाव में अनुसन्धान रूप प्रत्यय नहीं हो सकता है। इतना ही नहीं, किए हुए कर्मों के फल को न भोगने का, अकृत कर्मफल भोगने का, परलोक के नाश होने का और स्मरणशक्ति के अभाव का भी दूषण लगता है।
कम्मं जोगणिमित्तं बज्झइ बंधदिई कसायवसा । अपरिणउच्छिण्णेसु य बंधट्टिई' कारणं णत्थि ॥ 19 कर्म योगनिमित्तं बध्यते बन्धस्थितिः कषायवशात् । अपरिणतोच्छिन्नयोश्च बन्धस्थितिः कारणं नास्ति ||19||
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शब्दार्थ - जोगणिमित्तं - योग ( मन, वचन और शरीर के व्यापार से आत्मप्रदेशों में स्थित शक्ति विशेष से होने वाले परिस्पन्दन) निमित्त (साधन) (से) : कम्म-कर्म : बज्झड़ - ग्रहण (किया जाता है); कसायवसा - कषाय ( क्रोध, अहंकार, माया और लोभ) (के) अधीन (सामर्थ्य) से बंचट्ठिई-बन्ध (की) स्थिति ( निर्मित होती हैं); अपरिणउच्छिष्णेसु-उपशान्त कषाय तथा क्षीणकषाय दशा में सर्वथा नित्य- अनित्य अवस्था (में): य-और अंधट्टिई - बन्धस्थिति (का); कारण (निमित्त): णत्थि - नहीं ( है ) ।
1.
एकान्त मान्यता में कर्मबन्ध व स्थिति नहीं :
भावार्थ - मन, वचन और शरीर के व्यापार से उत्पन्न तथा आत्मा की योग- शक्ति विशेष से आत्म-प्रदेशों में हलन चलन रूप योग से कर्म ग्रहण किए जाते हैं तथा क्रोध, अहंकार, माया और लोभ रूप कषाय से बन्ध की स्थिति निर्मित होती है।
ब" बंधठिकाणं ।