Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 31
________________ 60 सम्मइसुतं अतएव नय न प्रमाण है, न अप्रमाण है; किन्तु सागर के एक तट की भाँति प्रमाण का एकदेश-स्वरूप है। ण य दवट्टियपक्खे संसारो पेव पज्जवणयस्स। सासयवियत्तिवाई जम्हा उच्छेयवाईय' 0171 न च द्रव्यार्थिकपक्षे संसारो नैव पर्यवनयस्य। शाश्वतव्यक्तिवादी यस्मात उच्छेदवादी च ||17|| शष्टार्थ-दव्यद्रियपक्वे-दव्यार्शिक (नय के) पक्ष मित) में; संसारो-संसार; ण-नहीं (है); य-और; पज्जवणयस्स-पयांयार्थिक नय के पक्ष में भी संसार); जेव-नहीं (है); जम्हा-जिस कारण (क्योंकि);-(द्रव्यार्थिक नय)-सासयवियत्तिवाई-शाश्वत (नित्य) व्यक्तिवादी (है); य और (दूसरा); उच्छेयघाई-उच्छेदवादी (नाशवादी) (है)। दोनों नयों की एकान्त दृष्टि में संसार नहीं : भावार्थ-द्रव्यार्थिकनय की एकान्त मान्यता के अनुसार जीव द्रव्य नित्य है, इसलिए अपरिणामी है और अपरिणामी होने से उसके संसार नहीं बनता है। इसी प्रकार पर्यायाधिकनय के मत में मूल वस्तु (आत्मा) का विनाश मानने से सुख-दुःख, जन्म-मरण, राग-द्वेषादि रूप संसार नहीं होगा। अतः द्रव्यार्थिकनय नित्यव्यक्तिवादी है और पर्यावार्थिकनय उच्छेदवादी या क्षणिकवादी है। दोनों के एकान्त मत में संसार की स्थिति नहीं बनती है। इसलिए दोनों की एकान्त मान्यता उचित नहीं है। सुह दुक्खसंपओगो ण जुज्जए' णिच्चवायपक्खम्मि। एगंतुच्छेयम्मि य सुहदुक्खक्यिप्पणमजुत्तं ॥18॥ सुखदुःखसंप्रयोगो न युज्यते नित्ववादपक्षे । एकान्तोच्छेदे च सुखदुःखविकल्पनमयुक्तम् ॥18॥ शब्दार्थ-णिच्चवावपक्खम्मि-नित्यवाद पक्ष में सहदुक्खसंपओगो-सुख-दुःख (का) सम्बन्ध; ण-नहीं; जुज्जए-जोड़ा जा सकता (है); य-और: एगंतुच्छेयम्मिएकान्त (के) उच्छेद (क्षणिकवाद) में (भी); सुहदुक्खवियप्पणमजुत्तं-सुख-दुःख (का) विकल्प करना अयुक्त (नहीं बनता) है। 1. पूर्व प्रकाशित पाट 'उच्छेअवाईआ'। 2. अ° सुख । १. ब" जुज्नई।

Loading...

Page Navigation
1 ... 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131