Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 27
________________ सम्मसुतं नियम से अवास्तविक है। इसी प्रकार पर्यायार्थिकनय की विषय-वस्तु (विशेष - विकल्प) द्रव्यार्थिकनय के लिए अवास्तविक ही है। विवक्षा भेद से दोनों नयों के विषय में भिन्नता है। दोनों ही नय एक ही वस्तु के विभिन्न रूपों का स्पर्श करते हैं। यद्यपि द्रव्यार्थिकनय पर्यायार्थिकनव रूप हो सकता है और पर्यायार्थिक नय का द्रव्यार्थिक 56 होना सम्भव है। क्योंकि एक भय का विषय के साथ दूसरे नय का विषय भी संस्पृष्ट है। फिर भी, द्रव्यार्थिकनय जिसे सामान्य मानता है, पर्यायार्थिकनय उसे विशेष मानता है । अतएव एक-दूसरे के विषय को अवस्तु मानने के कारण ये दोनों भिन्न हैं । उप्पज्जति वियंति' य भावा नियमेण पज्जवणयस्स । दव्यट्टियस्स सव्यं सया अणुप्पण्णमविण ॥11॥ उत्पद्यन्ते वियन्ति च भावा नियमेन पर्यवनयस्य । द्रव्यार्थिकस्य सर्वं सदानुत्पन्नमविनष्टम् ॥11॥ शब्दार्थ –पञ्जवणयस्स - पर्यायार्थिक नय की दृष्टि में); भावा-पदार्थ गियमेण - नियम से: उपज्जति - उत्पन्न होते हैं; वियति- नष्ट होते हैं; य-और दव्बहियस्स - द्रव्यार्थिक ( नय) की (दृष्टि में): सया - सदा सर्व्व- सभी (पदार्थ), अणुप्पण्णमविणटूठ-न उत्पन्न होते हैं और न नष्ट होते ( हैं ) | और भी भावार्थ-- प्रत्येक पदार्थ परिणमनशील है। जिस में परिवर्तन नहीं होता, वह वस्तु नहीं है। पर्यायार्थिकनय के अनुसार सभी पदार्थ उत्पन्न होते हैं, नष्ट होते हैं। पदार्थ अर्थक्रियाकारी हैं। अर्थक्रियाकारिता होना यही पदार्थ की परिणमनशीलता है। किन्तु द्रव्यार्थिकनय के अनुसार सभी पदार्थ न तो उत्पन्न होते हैं और न नष्ट होते हैं। वे ध्रुव हैं, नित्य हैं। पदार्थ मूल रूप में सदा पदार्थ रहता है । कूटस्थ नित्य पदार्थ में किसी भी प्रकार की क्रिया नहीं हो सकती। अतः 'सत्' यह कहा गया है जो अर्थक्रियाकारी है । द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि में परिणमनशीलता तो है, किन्तु उसकी दृष्टि केवल द्रव्य पर ही रहती है। दव्वं पज्जवविउयं दव्वविउत्ता य पज्जया णत्थि । उप्पायइिभंगा हंदि दवियलक्खणं एयं ॥ 12 ॥ द्रव्यं पर्ययवियुक्तं द्रव्यवियुक्तश्च पर्याय नास्ति । उत्पादस्थितिभङ्गाः सन्ति द्रव्यलक्षणमेतत् ||12|| 1. ययति । 2. ब° पज्जवविष्णुअं । 3. व उप्पादटिईभगा:

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