Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 22
________________ सम्मइसुतं प्रतिपादक हैं और विशेष रूप से पर्याय के। द्रव्यार्थिक (निश्चय या परमाथ) और पर्यायार्थिक (व्यवहार) नयों (सापेक्ष दृष्टियों) से मूल वस्तु की व्याख्या की गयी है। शास्त्रों में जिन सात नयों का वर्णन मिलता है, वह इन दो नयों का विस्तार है। सभी नय द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक इन दो नयों में गर्मित हैं। इनमें द्रव्यार्थिक नय का विस्तार नैगम, संग्रह एवं व्यवहार रूप है तथा पर्यायार्थिक नय का विस्तार ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरुढ़ और एवंभूत रूप है। मूल में जिनवाणी का विवेचन करने वाले ये दो ही नय हैं। दव्यट्ठियणयपयडी सुद्धा संगहपरूवणाविसओ। पडिरूचे पुण घयणत्यणिच्छओ तस्स' ववहारो || द्रव्यार्थिकनयप्रकृतिः शद्धा संग्रहप्ररूपणाविषयः । प्रतिरूपे पुनर्वचनार्थनिश्चयस्य तस्य व्यवहारः ॥4॥ शब्दार्थ-संगहपलवणाविसओ-संग्रह (नय की) प्ररूपणा (का) विषय; सुद्धा-शुद्ध; दहियणयपवडी-द्रव्यार्थिक नय (की) प्रकृति (है); पडिरूवे-प्रतिरूप में (प्रत्येक वस्तु-११ में): पुण-फिर; बचण-पंचन (क) अर्थ (का) णिच्छओ-निश्चयः तस्स-उस (संग्रह नय) का; ववहारो-व्यवहार (है)। संग्रहनय की सत्ता : भावार्थ-संग्रहनय को प्ररूपणा का विषय द्रव्यार्थिक नय को शुद्ध प्रकृति है। इसका अर्थ यह है कि संग्रहनय की विषयभूत केवल एक सत्ता है जो परसत्ता और अपरसत्ता के भेद से दो प्रकार की है। जो सम्पूर्ण पदाथों में रहती है वह अपरसत्ता है। संग्रहनय इन दोनों में से एक ही सत्ता को विषय कर उसका कथन करता है। यही द्रव्यार्थिकनय की शुद्ध प्रकृति हैं। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु के विचार में जो उस-उस वचन के अर्थ (बाच्य) का निश्चय होता है, वह उस संग्रहनय का व्यवहार है। इसी प्रकार पर्यायार्थिकनय की शुद्ध प्रकृति व्यवहार नय रूप है। लोक में व्यवहार व्यवहारनय के आलम्बन से होता है; संग्रहनय के आलम्बन से नहीं। यहाँ नैगमनय को द्रव्यार्थिकनय को शुद्ध प्रकृति में ग्रहण नहीं करने का कारण उस नय की मिश्रित दृष्टि है। जिस प्रकार नैगम नय का विषय सामान्य रूप होता है, उसी प्रकार विशेष रूप भी होता है। एक हो विषय रूप वाली उसकी दृष्टि नहीं है। 1. व "तस्म के स्थान पर 'लेत'।

Loading...

Page Navigation
1 ... 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131