Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 15
________________ 18 सम्मइसुत्ते रूप से 'सन्मतिसत्र' पर परिलक्षित होता है, वे हैं-आचार्य समन्तभद्र। आचार्य समन्तभद्र की रचनाओं का प्रभाव स्पष्ट रूप से 'सन्मतिसूत्र' पर देखा जाता है। क्योंकि 'आप्तमीमांसा' की 7वीं कारिका का विवेचन अन्य शब्दों में 'सन्मतिसूत्र' (3, 11) में किया गया है। और यही प्रभाव दिगम्बर-परम्परा के परवर्ती आचार्यों की रचनाओं में दृष्टिगोचर होता है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि 'सन्मतिसूत्र' की रचना के समय आ. सिद्धसेन के सम्मुख आप्तमीमांसा' और 'स्वयंभूस्तोत्र' विद्यमान थे। पं. सुखलालजी के कथनानुसार एक ओर 'स्वयम्भूस्तोत्र' और "आप्तमीमांसा" हैं और दूसरी ओर 'द्वात्रिंशिकाएँ', 'न्यायावतार' और 'सन्मतिसूत्र' हैं, जिनमें विषयवस्तु में बहुविध प्रभावपूर्ण साम्य हमें स्पष्ट रूप से लक्षित होता है। इसी प्रकार हम कुछ अन्य उद्धरण भी दे सकते हैं जो शबी, रचना राधा अभियकि में ही दृश हैं। किसी समय यह माना जाता था कि समन्तभद्र एक बौद्ध साधु थे। परन्तु अब यह स्वीकार कर लिया गया है कि आचार्य पूज्यपाद ने जिन लेखकों का उल्लेख किया है, वे सभी विद्वान गौरवशाली संघ के जैनाचार्य के रूप में हमें विज्ञात हो चुके हैं। अतः इसके विपरीत जब तक कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता, तब तक यह मान लेना आवश्यक हो गया है कि समन्तभद्र जैन लेखक थे। उनका जन्म दक्षिण भारत में हुआ था। स्पष्ट रूप से अभिलेखीय प्रमाण के आधार पर समन्तभद्र का दिगम्बर जैन आचार्य होना निर्विवाद सिद्ध है।' ___आचार्य सिद्धसेन के 'सन्पतिसूत्र' पर लिखी गई दो टीकाओं का पता चलता है। उनमें से एक संस्कृत भाषा में लिखित ग्यारहवीं शताब्दी के श्वेताम्बर आचार्य अभयदेवसूरि की टीका है जो 25,000 श्लोकप्रमाण उपलब्ध है। दिगम्बर आचार्य सुमतिदेव कृत संस्कृत दीका का उल्लेख मिलता है, जैसा कि यादिराज ने 'पार्श्वनाथचरित' में निर्देश किया है। किन्तु वह संस्कृत टीका अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है और न किसी ने खोज की है। इनके अतिरिक्त श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'सन्मतिसूत्र' पर श्री मल्लवादीकृत टीका का निर्देश किया है। सम्प्रति श्री मल्लवादी कृत रचनाओं में एकमात्र 'नयचक' उपलब्ध है। इस प्रकार विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य सिद्धसेन ने 'सन्मतिसूत्र' में जिन विषयों को चर्चित किया है और इस ग्रन्थ के जो सन्दर्भ तथा उद्धरण 'षट्खण्डागम' आदि ग्रन्थों की टीकाओं में उपलब्ध होते हैं, वे सभी दिगम्बर ग्रन्यों के अंश हैं और उनको प्रमाण के रूप में ही निर्दिष्ट किया गया है। यदि ये दिगम्बर ग्रन्थों के प्राचीनतम अंश न होते, तो | 1. संघवी, सुखलाल और बेचरास दोशी : सन्मति तक (अंग्रेजी अनुयाद), प्रस्तावना, पृ. 16-17 2. शाकटायन व्याकरण का सम्पाकीय आमुख, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, पृ. 9 3. पेनाफिका कर्णाटिका, जिल्द 5. अभिलेख सं. 118 1. नमः सन्मतचे तस्मै भव-प-निपातिनाम् । सन्मतिर्विवृता येन सुखधाप-प्रवेशिनी ।। -पायनाथधरित, श्लो. 22 5. उक्तं च वादिमुख्येन श्रीमल्लयादिना सम्मती। -अनेकान्तजयपताका, पृ. 47

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