Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 12
________________ प्रस्तावना उपयोग चेतना का ही परिणमन है जो नय की अपेक्षा जीव की एक पर्याय मात्र है। उपयोग दो प्रकार का है : दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग। फिर, दर्शनोपयोग के भी चार भेद हैं-चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवलदर्शन।' आचार्य वीरसेन का कथन स्पष्ट है कि दर्शन और ज्ञान में अन्तर यह है कि ज्ञान साकार है और दर्शन निराकार है । पर्यायरहित सामान्य मात्र के ग्रहण को ही दर्शन कहते हैं। सामान्य का अर्थ द्रव्य (आत्मा) है। दर्शन अन्तर्मुखी प्रवृत्ति द्वारा आत्मा को ग्रहण करता है। अन्तर्ज्ञान के द्वारा दर्शन आत्मा को ग्रहण करता है, किन्तु ज्ञान स्व पर प्रकाशक है। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कृत 'द्रव्यसंग्रह' की गाथा 43 की व्याख्या में ब्रह्मदेव कहते हैं कि 'दर्शन' का अर्थ सामान्य उपयोग है। जीव की अन्तरंग प्रवृत्ति उपयोग से ही लक्षित होती है। उदाहरण के लिए, जब कोई मनुष्य किसी वस्तु को समझना चाहता है, तो जानने के पूर्व वह उस वस्तु की ओर उन्मुख होता है जिसमें अन्तर्मुखी प्रवृत्ति रूप सामान्य प्रतिभा गान होता है। इसे ही कहा जाता है कि उसके दर्शन है। किन्तु जब वह उस वस्तु के सम्बन्ध में विशेष रूप से आकार, वर्ण आदि जानना चाहता है, तो कहा जाता है कि उसके ज्ञान है ।' 'दर्शन' शब्द का प्रयोग श्रुतज्ञान के लिए नहीं किया जा सकता, क्योंकि शास्त्र के ज्ञान से जिन पदार्थो को जाना जाता है, वे इन्द्रियों से अस्पृष्ट तथा अग्राह्य होते हैँ । श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष की भाँति वस्तुओं को ग्रहण नहीं करता। और इसीलिए यह मतिज्ञान के लिए भी लागू नहीं होता।' यद्यपि श्वेताम्बरों के आगम ग्रन्थ 'प्रज्ञापनासूत्र' ( 30, 319) में यह प्रतिपादन किया गया है कि केवली भगवान् जिस समय जानते हैं, उस समय देखते नहीं हैं और जिस समय देखते हैं, उस समय जानते नहीं हैं; किन्तु आचार्य सिद्धसेन ने इस मान्यता का खण्डन किया है। प्राणी पहले किसी वस्तु की ओर उपयोग से उन्मुख होता है, फिर देख कर जानता है । जानने और देखने का यह क्रम मन:पर्ययज्ञान तक बराबर पाया जाता है । परन्तु केवलज्ञान- सम्पूर्णज्ञान की व्यक्त अवस्था में दर्शन और ज्ञान में कोई अन्तर नहीं रह जाता। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती इस मान्यता को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं : इस लोक में रहने वाले मनुष्य, पशु-पक्षी आदि सभी जीव संसारी कहलाते हैं। सभी संसारी जीवों में दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है। उनके दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग दोनों एक साथ नहीं होते। परन्तु केवली भगवन्तों के दोनों उपयोग एक 1. दंसणमयि चक्जुदं अचबुजुदं अचक्खुजुदमद य ओहिया सहिये । अणिक्षणमणंतसिय-केयलियं चापि पण्णत्तं ॥ पंचास्तिकाय, गा. 4४ 2. जयधवला, ग्रन्थ 1, 1, पृ. 937 3. द्रव्यसंग्रह की डीका गा. 44, पृ. 169 15 4. सन्मतिसूत्र 2,28 5. दंसणपुष्यं णाणं छदुमत्याणं ण दुष्णि जयओगा । जुगवं जम्हा केवलिंगणा जुगदं तु ते दोदि ॥ द्रव्यसंग्रह 14

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