Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 11
________________ सम्मइसुक्त को अतीन्द्रिय ज्ञान से जानते हैं, क्योंकि उनके क्षायिक ज्ञान होता है। यही बात बहुत पहले 'पट्खण्डागम' में कहीं जा चुकी थी। आचार्य कुन्दकुन्द का भी यही विचार है; केबली भगवान के दोनों उपयोगा साथ होते हैं जैसे कि सर्गका होने पर प्रकाश और आतप युगपत् प्रकट होते हैं। यह भी निर्दिष्ट किया गया है कि हम दर्शन और ज्ञान में मनःपर्ययज्ञान तक भेद कर सकते हैं, किन्तु केवलज्ञान की स्थिति में दर्शन और ज्ञान में कोई भेद नहीं रहता। यदि केवलज्ञानी जीव लगातार सब जानता है, तो उसे सदैव सतत सब जानते ही रहना चाहिये, नहीं तो यह समझना चाहिए कि वह नहीं जानता हैं।' आचार्य सिद्धसेन ने 'सन्मतिसूत्र' में अभेदवाद के इस सिद्धान्त का ही विस्तार किया है। ग्रन्थ में प्रयुक्त 'केई भति" (सन्मति, 2, 4) "कुछ लोग कहते हैं" यह याक्य स्पष्ट रूप से क्रमवाद के मानने वालों की ओर संकेत कर रहा है, जिनकी मान्यता का खण्डन ग्रन्थकर्ता ने किया है। आचार्य सिद्धसेन की इस अभेदवाद की स्थापना का समर्थन आचार्य वीरसेन ने अपनी 'षट्खण्डागम' की टीका में किया है। जैसा कि पं. सुखलालजी ने और बेचरदासजी ने 'सन्मतिसूत्र' की गाथाओं (2, 23-24) की व्याख्या में निर्दिष्ट किया है कि शास्त्र में कहीं भी श्रोत्रदर्शन, प्राणदर्शन आदि व्यवहार का उल्लेख नहीं है, किन्तु श्रोत्रविज्ञान, प्राणविज्ञान आदि का व्यवहार है। परन्तु सन्मतिकार ने सभी इन्द्रियों का दर्शन माना है। सम्भवतः मान्यता के अनसार श्वेताम्बर साहित्य में इस प्रकार के शब्द नहीं मिलते हैं, किन्तु दिगम्बर साहित्य में इनका प्रयोग उचित रूप से हुआ है। आचार्यों का कथन है कि दर्शनावरणीयकर्म का क्षयोपशम होने पर जीय नेत्र इन्द्रिय या मन के बिना कर्ण, घ्राण, रसना या स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा मन से अर्थ-ग्रहण करता है। नेत्र इन्द्रिय से देखें बिना ग्रहण करने के कारण इसे अचक्षुदर्शन कहा जाता है।' आगम ग्रन्थ "पखण्डागम" की धवला टीका में आचार्य वीरसेन ने चक्षु- और मन को अप्राप्यकारी माना है तथा शेष चारों इन्द्रियों को प्राप्यकारी एवं अप्राप्यकारी दोनों रूपों में माना है। दर्शन 'उपयोग' की प्रथम भूमिका है, जिसे विशेष रहित या सामान्य ग्रहण भी कहते हैं। यदि इस प्रकार की भूमिका न हो, तो किसी वस्तु का ज्ञान नहीं हो सकता। वास्तव में जीव वस्तुओं को जानते समय 'मैं किसी वस्तु विशेष को जानें या नहीं जानूँ" इस प्रकार का विशेष पक्षपात न कर सामान्य रूप से जानता है। १. जुगवं वष्ट गाणं केवलागाणिस्त दंसणं व तहा।। टिगयरपचासतापं अह वह लह मुणेयव्यं ।। -नियमसार, गा. 160 2. कलघारगी, टी. जी. : सम प्रोब्लेम्स इन जैन सायक्लोजी, धारवाड़, 1961, पृ. 33 3. संघवी, पं. सुखलाल और बेथरदात : सम्पतितर्क-प्रकरण, पृ. 46 1. घोषाल, शरतचन्द्र प्रधसंग्रह की टीका (द सेक्रेड बुक्स ऑव द जैनाज़ जिल्द 1, पृ. 10 5. षट्खण्टागम, वर्गणा खण्ड, 5, 5, 27, जिल्ल 13, पृ. 225-26 5. दसणषुचं गाणं छपत्यागं ण दुषिण उपओगा। --द्रव्यसंग्रह, गा. 44 दसणपुचं गाणं गाणणिमित्तं तु दंसणं गत्यि। -सन्मतितून, 2, 22

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