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समयसार अनुशीलन
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(हरिगीत ) आत्मा में है स्वभाविक परिणमन की शक्ति जब ।
और उसके परिणमन में है न कोई विघ्न जब ॥ 'क्यों न हो तब स्वयं कर्ता स्वयं के परिणमन का ।
यह सहज ही नियम जानो वस्तु के परिणमन का ॥६५॥ इसप्रकार जीव की स्वभावभूत परिणमनशक्ति निर्विघ्न सिद्ध होने पर जीव अपने जिस भाव को करता है, उस भाव का कर्ता होता है।
पण्डित श्री बनारसीदासजी ने उक्त छन्द का भावानुवाद समयसारनाटक में इसप्रकार किया है -
(दोहा ) जीव चेतना संजुगत सदा पूरण सब ठौर ।
ता” चेतनभाव कौ करता जीव न और ॥ ज्ञान-दर्शन चेतना से युक्त यह जीव सदा ही सर्वांग परिपूर्ण वस्तु है। इसकारण चेतनभावों का कर्ता जीव ही है; अन्य कोई नहीं।
इसप्रकार विगत १० गाथाओं २ कलशों में यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो गई कि पौद्गलिक कर्मों का कर्ता पुद्गलद्रव्य है और चेतनभावों का कर्ता जीव है।
प्रश्न - इन्हीं गाथाओं का स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य जयसेन तो लिखते हैं कि जीव अपनी स्वभावभूत परिणामशक्ति के कारण क्रोधादिभावों का उपादानकर्ता है। इसका क्या आशय है ?
उत्तर - यही आशय है कि क्रोधादिभावों का वास्तविक कर्ता आत्मा ही है; क्योंकि उपादानकर्ता ही वास्तविक कर्त्ता होता है। क्रोधादिभावों में द्रव्यकर्म का उदय तो मात्र निमित्त है।
प्रश्न - यदि ऐसा है तो आचार्य अमृतचन्द्र ने ऐसा क्यों नहीं लिखा है?
उत्तर - आचार्य अमृतचन्द्र ने भी घट की कर्ता मिट्टी और गरुड़ के ध्यान में परिणत मंत्र साधक का उदाहरण देकर उपादानकर्ता की ओर ही संकेत किया है।