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समयसार अनुशीलन
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'यह जीव कर्म में स्वयं नहीं बंधता और क्रोधादिभाव में स्वयमेव नहीं परिणमता' - यदि ऐसा तेरा मत है तो यह जीव द्रव्य अपरिणामी सिद्ध होगा। जीव द्रव्य स्वयं क्रोधादिभावरूप परिणमित नहीं होने से संसार का अभाव सिद्ध होता है अथवा सांख्यमत का प्रसंग आता है। __ यदि ऐसा माना जाय कि क्रोधरूप पुद्गलकर्म जीव को क्रोधरूप परिणमन कराता है तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि स्वयं नहीं परिणमते हुए जीव को क्रोधकर्म, क्रोधरूप कैसे परिणमा सकता है ?
तथा यदि ऐसा माना जाय कि आत्मा स्वयं ही क्रोधभाव रूप से परिणमता है तो फिर - क्रोधकर्म जीव को क्रोधरूप परिणमाता है - यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है।
अतः यह मानना ही ठीक है कि क्रोध में उपयुक्त आत्मा क्रोध ही है, मान में उपयुक्त आत्मा मान ही है और माया में उपयुक्त आत्मा माया ही है और लोभ में उपयुक्त आत्मा लोभ ही है।
उक्त गाथाओं में यह सिद्ध किया गया है कि जीव स्वयं ही अपने परिणामों का कर्ता है। विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहां जीव को क्रोधादि भावों का कर्ता बताया गया है।
इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
"यदि जीव कर्म में स्वयं न बंधता हुआ क्रोधादिभावों में स्वयमेव ही परिणमित न होता हो तो वह वस्तुतः अपरिणामी ही सिद्ध होगा और ऐसा होने से संसार का अभाव सिद्ध होगा। ___ इससे बचने के लिए यदि यह तर्क उपस्थित किया जाय क्रोधादिरूप पुद्गलकर्म जीव को क्रोधादिभावरूप परिणमित करता है, इस कारण संसार का अभाव नहीं होगा।
इस तर्क पर विचार करने पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्रोधादिरूप पुद्गल कर्म स्वयं अपरिणमते हुए जीव को क्रोधादिरूप परिणमाता है या स्वयं परिणमते हुए जीव को ?