________________
समयसार अनुशीलन
188
... ( हरिगीत ) ... सब पुद्गलों में है स्वभाविक परिणमन की शक्ति जब । .... और उसके परिणमन में है न कोई विघ्न जब ॥ .
क्यों न हो तब स्वयं कर्ता स्वयं के परिणमन का।
यह सहज ही नियम जानो वस्तु के परिणमन का ॥६४॥ इसप्रकार पुद्गलद्रव्य की स्वभावभूत परिणामशक्ति निर्विघ्न सिद्ध हुई और उसके सिद्ध होने पर पुद्गलद्रव्य अपने जिस भाव को करता है, उसका वह पुद्गलद्रव्य ही कर्ता है। - नाटक समयसार में इस कलश का भावानुवाद इसप्रकार किया गया है -
( दोहा ) पुदगल परिनामी दरव, सदा परिनवै सोइ।
यातै पुदगल करम को, पुदगल करता होइ ॥ इन गाथाओं की टीका लिखते समय आचार्य जयसेन ने भी तात्पर्यवृत्ति में लगभग इसीप्रकार का भाव व्यक्त किया है। हाँ, एक बात, जो तात्पर्यवृत्ति में सहज ही आगई है, वह विशेष ध्यान देने योग्य है। उसमें कहा गया है कि जब कोई भी महत्त्वपूर्ण बात कही जावे तो उसका अर्थ पाँच प्रकार से किया जाना चाहिए। उसका शब्दार्थ बताया जाना चाहिए, वह कौन-से नय का कथन है - यह बताना चाहिए, वह बात किस मत के सन्दर्भ कही गई है - यह बताना चाहिए। उस बात के समर्थक आगम को प्रस्तुत करना भी जरूरी है और उसका भावार्थ क्या है - यह बताना भी आवश्यक है। ध्यान रहे भावार्थ में हेयोपादेय का व्याख्यान किया जाता है। ..जो लोग अति महत्त्वपूर्ण बातों में भी आगम और नयों की उपेक्षा करना चाहते हैं और भावार्थ में चाहे जो कुछ लिख देना अपना अधिकार समझते हैं; उन लोगों को आचार्य जयसेन के उक्त कथन पर ध्यान देना चाहिए। .
स्वयं से उद्घाटित सत्य जितना लाभदायक होता है, उतना दूसरों के द्वारा उद्घाटित नहीं। - आप कुछ भी कहो, पृष्ठ ६८