Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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स्याद्वादमं.
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और इस पूर्वोक्त कथनसे “ जो कभी अपने खरूपसे गिरै नहीं, अर्थात् नष्ट न हो, उत्पन्न न हो और स्थिर एकरूप रहे, वह नित्य है " ऐसा जो वादियोंने नित्यका लक्षण कहा है, उसका खंडन होगया। क्योंकि, जिसका नाश और उत्पाद न हो | और सदा स्थिर एक रूप रहै, ऐसा कोई पदार्थ ही नहीं है । और जैनतत्त्वार्थसूत्रकारने “ तद्भावाव्ययं नित्यम् " ( पदार्थ के स्वभावका जो नाश न होना है, सो नित्य है ) यह जो नित्यका लक्षण कहा है, वह तो सत्य है । क्योंकि, 'उत्पाद और विनाशके होनेपर भी संबंधित स्वरूप जो पदार्थका भाव (स्वरूप) है उससे जो नष्ट न हो अर्थात् रहित न हो, वह नित्य है' यह जो नित्यका अर्थ | है, वह पदार्थों में घटता हुआ है अर्थात् सिद्ध है । और यदि वादियोंका माना हुआ जो अप्रच्युत आदि पूर्वोक्त लक्षणका धारक नित्य है, उसको स्वीकार किया जाय तो उत्पाद और व्ययके निराधारताका प्रसंग हो जावे अर्थात् उत्पाद और व्ययका कोई भी पदार्थ आधार न रहै । और हम जो उत्पाद तथा व्ययका पढार्थमें संयोग मानते हैं, उससे पदार्थकी नित्यतामें कोई हानि नहीं होती है । क्योंकि, " पर्यायके विना द्रव्य और द्रव्यके विना पर्याय किसीने किसी समय किसी स्थलमें किसी रूपवाले किसी प्रमाणसे भी नही देखे है ? अर्थात् कोई भी कही भी किसी भी प्रमाणसे पर्याय रहित द्रव्य और द्रव्यरहित पर्याय नहीं देख सकता है। १ । ऐसा जैनशास्त्रोंका वचन है । और आकाश द्रव्य नहीं है ऐसा नहीं है, अपि तु है ही है ।
लौकिकानामपि घटाकाशं पटाकाशमिति व्यवहारप्रसिद्धेराकाशस्य नित्याऽनित्यत्वम् । घटाकाशमपि हि यदा घटापगमे पटेनाक्रान्तं तदा पटाकाशमिति व्यवहारः । न चायमौपचारिकत्वादप्रमाणमेव । उपचारस्यापि किञ्चित्साधर्म्यद्वारेण मुख्यार्थस्पर्शित्वात् । नभसो हि यत्किल सर्वव्यापकत्वं मुख्यं परिमाणं तत्तदाधेयघटपटादिसम्बन्धिनियत परिणामवशात्कल्पितभेदं सत्प्रतिनियतदेशव्यापितया व्यवह्रियमाणं घटाकाशपटाकाशादितत्तद्व्यपदेशनिबन्धनं भवति । तत्तद्घटादिसम्बन्धे च व्यापकत्वेनावस्थितस्य व्योम्नोsवस्थान्तरापत्तिस्ततश्चावस्थाभेदेऽवस्थावतोऽपि भेदस्तासां ततोऽविष्वग्भावात् । इति सिद्धं नित्यानित्यत्वं व्योम्नः ।
- तथा जैनी ही आकाशको नित्य - अनित्य मानते है, ऐसा नहीं है । क्योंकि, लौकिक अर्थात् सर्वसाधारण जन है, उनके भी "यह, घटका आकाश है, यह पटका आकाश है" ऐसा व्यवहार प्रसिद्ध है । इस लिये वे भी आकाशको नित्यानित्य ही मानते है । क्योंकि घटका आकाश जब घटके दूर होजानेपर पटसे युक्त होता है, तब पटाकाश ऐसा व्यवहार होता है । और यह व्यवहार उपचार से
रा. जै. शा
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