Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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क्रेभदस्तुल्यत्वं सङ्करोऽथानवस्थितिः। रूपहानिरसम्बन्धो जातिवाधकसङ्ग्रहः । १।” इति । ततः स्थितमेतत्सतामपि स्यात् क्वचिदेव सत्तेति ।
जैसे द्रव्य, गुण और कर्म; इन तीनोंमें अनुवृत्तिप्रत्यय है, उसी प्रकार सामान्य, विशेप तथा समवाय; इन तीन पदार्थोमें | अनुवृत्तिप्रत्यय क्यों नही है ।' ऐसा यदि आप प्रश्न करो तो हम (वैशेषिक ) कहते है कि, वहां वाधकका सद्भाव है अर्थात् ||
सामान्यादिकमें अनुवृत्तिप्रत्ययके माननेमें अनेक वाघायें है । सो ही दिखलाते है–यदि सत्ता ( सामान्य ) में भी सत्ताका योग, - मानें तो अनवस्था होती है अर्थात् जब एक सत्तामें दूसरी सत्ताको और दूसरी सत्तामें तीसरी सत्ताको अनुवृत्तिप्रत्ययकी कारणभूता IN मानेंगे; तब कही भी स्थिति न होगी । यदि विशेषोमें सत्ताके योगको स्वीकार करें तो व्यावृत्तिका हेतुरूप जो विशेषका स्वरूप है;
वह नष्ट हो जावेगा भावार्थ-हमारे मतमें विशेषका खरूप यह है कि; वह नित्यपदार्थोंको पृथक् ( भिन्न ) करता है; और स्वय पृथक् बना रहता है अर्थात् विशेष अपना व्यावर्तक आप ही है। अतः यदि विशेषमें विशेषत्वरूप सामान्य मान लिया जावेगा; तो विशेषके खतः व्यावर्तकत्वरूप खरूपका नाश हो जावेगा। क्योंकि ' जो सामान्यका आश्रय होता है; उसका सामान्यसे भेद होता है । ' एसा नियम है । और यदि समवायमें सत्ताके योगको मानें तो संबंधका अभाव है अर्थात् समवायमें सत्ताका योग | करनेवाला दूसरा समवाय नहीं है; इसकारण किस संबंधसे समवायमें सत्ताका योग किया जावे ? । सो ही प्रामाणिकपुरुषों में श्रेष्ठ ||७|| ऐसे उदयनाचार्य कहते है कि;-" व्यक्तिका अभेद १, तुल्यता, २, संकर ३, अनवस्था ४, स्वरूपहानि ५ और संबंधका अभाव ६, ये छः जाति ( सामान्य ) के वाधक है । १ । भावार्थ-आकाशत्वधर्म जातिरूप नहीं है । क्योंकि; वह आकाशरूप
एक व्यक्तिमें रहता है । १ । घटत्व और कलशत्व ये दोनों धर्म जातिरूप नहीं है । क्योंकि, दोनोंकी व्यक्ति समान है अर्थात् || IN घटत्व तथा कलशत्व ये दोनों एक ही पदार्थमें रहते है । २ । भूतत्व और मूर्तत्व ये दोनों जातिरूप नहीं हैं । क्योंकि; यद्यपि
आकाशमें केवल भूतत्व और मनमें केवल मूर्तत्व रहता है, तथापि पृथ्वी, जल, तेज और वायुमें इन दोनोंका संकर है अर्थात् | | पृथ्वी आदिमें भूतत्व और मूर्त्तत्व ये दोनों धर्म रहते है। ३ । सामान्यमें सामान्यत्व जातिरूप नहीं है । क्योंकि; सामान्यमें
१. अस्य ब्यास्या। आकाशत्वं न जातिः । व्यक्त्यैक्यात् । १। घटत्वकलशत्वे न जाती। व्यक्तितुल्यत्वात् । २। भूतत्वमूतत्वे न जाती। आकाशे भूतत्वस्यैव मनसिच मूर्तत्वस्यैव सद्भावेऽपि पृथिव्यादिचतुष्टय उभयोः सद्भावात्संकरप्रसङ्गः । ३ । जातेरपि जात्यन्तरागीकारेऽनवस्थाप्रसङ्गः । ४ । अन्त्यविशेपता न जातिः । तदङ्गीकारे तत्स्वरूपव्यावृत्तिहानिः स्यात् । ५। समवायता न जातिः सम्बन्धाभावात् । ६ । इत्येते जातिबाधकाः॥
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